परछाई - कविता - प्रियंका चौधरी परलीका

कभी कभी
सुकुन देती हैं,
अपनी परछाई देखना 
परछाई से बातें करना ।

कुछ बातें…
जो हमारे दिमाग में होती है ,
दिल कहने नहीं देता ।

कुछ बातें …
हमारे दिल में होती है,
दिमाग कहने नहीं देता।

दिल-दिमाग की कसमकस में ,
कभी कभी वो बातें ,
हम अपनी परछाई से कर लेते हैं ।

मुझे सुकुन देता है ,
अपनी परछाई से,
बतियाना….

बहुत सारी बातें 
मैं करना चाहती हूँ साझा ,
दुनिया से ।
किसी अजीज से !

पर कर नहीं सकती ,
मुझे डर लगता है ।
मैं डरपोक हूं ।

मैं दुनिया की तरह नहीं सोचती ।
वो हर हाल में मुझे ग़लत समझेगी ।

कुछ बातें मुझे कमजोर
कुछ बातें मुझे पागल बनाती है,
कुछ बातें दिवाना ‌।

मुझे डर नहीं लगता 
दुनिया मुझे पागल, दिवाना , कमजोर समझे।
फिर भी मैं डरपोक हूँ ।

मुझे पसंद नहीं …
दुनिया में ,
पागल, कमजोर,दिवाना कहलाना ।

मुझे पसंद नहीं 
ये दुनिया ,
मेरे नाम के अलावा
किसी और नाम से पुकारे ।

मुझे नाम , पहचान से डर लगने लगाना है ।
नाम देकर ,छिन लेती है ये दुनिया आजादी ।
मैं बेटी हूँ ,
पहले ही समाज ने नाम देकर ,
जकड़ा रखा है मुझे बेडीयों में ।

प्रियंका चौधरी परलीका - परलीका, नोहर, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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