माँ - कविता - कपिलदेव आर्य

भीग जाते हैं शफ़े और काग़ज़ भी,
मैं जब भी कलम से माँ लिखता हूँ!

हे माँ, लफ़्ज़ों में तेरी सूरत झलकती है,
मैं फिर वही नन्हा सा बच्चा दिखता हूँ!

बरस पड़ते हैं, आँसू अपने आप ही, 
जब मैं भीगे स्वर में माँ की कविता पढ़ता हूँ!

माँ, मेरे गीत महफ़िलों की शान बनते हैं,
मैं ख़ुद नहीं जानता कि मैं क्या लिखता हूँ?

अपनी नेकियों से धो देती है गुनाह मेरे,
मैं तो बस माँ को ही ख़ुदा लिखता हूँ!

माँ की दुआओं से हर 'शै' लौट जाती है,
मैं, माँ के आँचल को पनाह लिखता हूँ!

कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)

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