प्रशान्त "अरहत" - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)
विवेकानन्द का सपना - कविता - प्रशान्त "अरहत"
शनिवार, सितंबर 19, 2020
नज़र मंजिल पे है जिनकी,
वो कदम खुद ही बढ़ाते हैं।
फिर चढ़कर आसमानों पर,
सितारे गढ़ के आते हैं।
चाहे दीवार बनकर मुश्किलें,
लाख फिर रास्ते में आ जायें।
बढ़े आगे वो उनका चीरकर सीना,
नहीं एक पल भी घबरायें।
तुम्हारे दम से ये दुनिया भी
बहुत कुछ सीख जाती है।
बनाकर तुम को फिर आदर्श
प्रेरणा खुद भी पाती है।
सभी युवक समर्पित ख़ुद को
अग़र हित राष्ट्र के कर दें।
फ़िर भारत माँ के आंचल को
अमूल्य निधियों से वो भर दें।
अग़र फिर ज्ञान का वर्तुल भी
दीर्घाकार हो जाये।
समझो विवेकानंद का सपना
भी फिर साकार हो जाये।
नैतिकता, सदाचारी से हरदम
प्रीत तुम करना।
यही मानव का आभूषण न इनको,
दूर तुम करना।
कहीं हो जाये ग़र तुमको
कभी अवसाद, मत डरना।
मेरी कविता के भावों से,
सार्थक संवाद तुम करना।
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