काश मैं बंजारा होता - कविता - दिलीप यादव

"काश मैं बंजारा होता"
तो लोगों का गुलाम ना होता,
ना कोई नाम होता ना कोई काम होता,
ना किसी पे बोझ होता ना किसी का बोझ होता,
ना किसी को मुझसे उम्मीद होती ना कोई जिम्मेदारी होता,
इस दुनिया दारी और लोगों के भीड़ से दूर होता,
अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जीता,
फिर मै संवारता या बिगाड़ देता,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता,
क्योंकि ये इरादा मेरा होता,
नाही मै लोगो के लिए अच्छा होता,
नाही मै लोगो केे लिए बुरा होता,
काश मै किसी से जुड़ा ना होता,
शायद मै लोगो के लिए एक फकीर होता,
ना कोई अपना ना कोई पराया होता,
ये सड़क मेरा रंगमंच और मै उस रंगमंच का कलाकार होता,
जहां मै अपने कला का मोहताज होता,
ना कोई अहेसान होता ना कोई मुझसे दुखी होता सब चीज़ सिर्फ आसान होता,
काश मै मजबूर ना होता,
अगर ये जिम्मेदारी का ताज मेरे सिर पर ना होता,
मेरा कोई घर ना होता,
नाही मेरा कोई परिवार होता,
मेरा कोई ठिकाना ना होता,
नाही मेरा कोई बिस्तर होता,
हर सुबह एक अलग सड़क होता,
हर सवेरा एक नया दिन और नया एहसास होता,
आसमान में उड़ते पंछियों सा मै आजाद होता,
काश मैं बंजारा होता।
काश मैं बंजारा होता........

दिलीप यादव - सरायपाली, महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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