फिर से अंगूठा, अर्पण करता।
बोल तुझे, और क्या चाहिए
क्या मस्तक, गुरु दान करू मैं।
प्रतिदिन निश्छल, मूरत देखी
जब विधि कक्षा में, तेरी सूरत देखी।
क्या तुझे अर्जुन अब भी प्यारा
या कोई एकलव्य, नही गवारा।।
फिर फिर, इतिहास क्यूँ दुहराता
हर बार तू, अंगूठा क्यूँ ले जाता।
क्या द्रोण तुझे, ये भान नही
कि समस्त आर्य में, तू कोसा जाता।।
विजय नही, ये हार हुई भले कामना, तेरी स्वीकार हुई
फिर भी यै द्रोण, तुझे स्वीकार मैं करता
लो फिर फिर अंगूठा, अर्पण करता ।।
एकलव्य ही क्यूँ, हार मानता
क्यूँ बारंबार, संयम रखता।
गुरु का सम्मान उसेअति प्रिय लगता
इस लिए अंगूठा, अर्पण करता।।
मनोज यादव - मजिदहां, समूदपुर, चंदौली (उत्तर प्रदेश)