मिटे भोर पा अरुणिमा - दोहा - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

सुन्दर मधुरिम मांगलिक, हो जीवन उल्लास।
हो उदार मानस मधुर, नवप्रभात उद्भास।।१।।

प्रतिमानक लेखन बने, देश काल परिवेश।
सत्य पूत अभिव्यक्ति से, जन जागृति संदेश।।२।।

चहुँ विकास सतरंग बन, इन्द्रधनुष नीलाभ।
खिले अधर आगम युवा, खिले प्रगति अरुणाभ।।३।।

करें शान्ति अभिलाष मन, रखें भाव कल्याण।
मिटे वतन से त्रासदी, दीन हीन जन त्राण।।४।।

गेह गेह दीपक जले, शिक्षा  शुभ आलोक।
खुशियाँ सुखमय जिंदगी, मिटें रोग भय शोक।।५।।

उदरानल तृषार्त जब, बुझे अन्न जल काश।
गेह वसन तन सुलभ हो, कटे तभी दुख पाश।।६।।

जीवन जन अहसास मन, शासन में विश्वास।
अगड़े पिछड़े भेद का, मिटे हृदय आभास।।७।।

जाति पाँति अरु धर्म ही, है अवनति का मूल।
आरक्षण की फाँस से, हो उन्नति प्रतिकूल।।८।।

लोभ  मोह ईर्ष्या कपट, झूठ लूट मद चाह। 
ये विनाश की कालिमा, हो विकास गुमराह।।९।।

लोकतंत्र हो तब  सफल, शासक हो ईमान।
भाव मनसि इन्सानियत, हो सबका सम्मान।।१०।।

क्षतविक्षत अभिलाष मन, सौरभ विरत निकुंज।
पतझड़ बन आहें भरे, मुरझाये दलपूँज।।११।। 

कुलीनता बाधक सदा, विद्योत्तम बेकार।
फँस आरक्षण दीनता, लूट घूस सरकार।।१२।।

जीवन बस अपमान पा, सहा सदा उपहास।
नीति त्याग सद्कर्म पथ, कठिन जटिल आभास।।१३।।

कविरा है अवसाद मन, शोकाकूल आगम्य।
मिटे भोर पा अरुणिमा, जाति धर्म वैषम्य।।१४।।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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