मंजिल का पता पूछो धार से - कविता - उमाशंकर राव "उरेंदु"

मंजिल वो नहीं होती
जहाँ  हम जाना चाहते हैं 
मंजिल वो होती है
जहाँ वह हमें  ले जाती है।

यह अलग बात है
कि हम मंजिल को देखते हैं 
और मंजिल हमें देखती है
नतीजा यह होता है
कि ऊहापोह में हम कुछ तय ही नही कर पाते हैं 
न पहचान पाते हैं  खुद को
न खुदा की खुदाई समझ पाते हैं ।

कुछ तो अपने को इतना समझ लेते हैं 
कि सिरमौर बनकर भी 
अपनी ही प्यास की बात करते हैं 
खुदा की खुदाई है
और के लिए जीना
कुदरत की नेकनामी को सलामत रखना 
पखेरुओं की अदा पर गुनगुना
दूव-तिनकों को सहलाना 
नदियों से बातें करना
हवा से गलवाहीं करना
रंग भेद जाति-पाती तो अपनी-अपनी ललक है।

कहो तुम इस ललक के किरदार में 
आजकल कैसे लग रहे हो?
हमारी ललक जानना चाहो तो,
मेरे शब्दों की धार में एक बार उतरकर
कुछ संवाद कर सकते हो उससे
शायद तुम्हें मंजिल का पता मिल जाए।

उमाशंकर राव "उरेंदु" - देवघर बैद्यनाथधाम (झारखंड)

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