देखो तो - कविता - सतीश श्रीवास्तव

ज़मीं पर उग रहे हैं कँटीले तार देखो तो,
एकता के सभी नारे हुए बेकार देखो तो।
सहारा जिसको समझा था सुबह के स्वप्न में मैंने,
वही निकला मगर गिरती हुई दीवार देखो तो।
यहाँ पर खुशकिस्मती है कि साँसे ले रहे हैं हम,
यकीं करने को बस आज का अखबार देखो तो।
सभी कुछ आज महँगा है यहाँ पर मौत है सस्ती,
निकल कर देखिए घर से जरा बाजार देखो तो।
बने अपने रहे अपने छुरी को हाथ में लेकर,
जरा सी भूमि की खातिर हुई तकरार देखो तो।
कभी तो आएगा अच्छा समय यह सोचता हूँ मैं,
हँसी देकर छला हूँ मैं मगर हर बार देखो तो।

सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos