बारिश - कविता - आलोक कौशिक

कल रात जब वो आई थी घर मेरे 
तब होने लगी थी बेमौसम बारिश 
सिर्फ़ संयोग था बादलों का बरसना 
या थी कुदरत की वह एक साज़िश 

मिली थी वह मुझसे पिछले बरस ही 
पर हम अब तक मिल ना पाए थे 
महसूस किया था इश्क़ की आतिश 
कल रात जब हम क़रीब आए थे 

सुलगाकर मोहब्बत की अँगीठी 
पिघलने लगी थी वह मेरे आगोश में 
जब पिलाया उसने प्रेम का प्याला 
रह सका ना मैं ज़रा भी तब होश में 

भींग कर ठंडी हो चुकी थी सारी ज़मीं 
आसमां की उल्फ़त भरी बौछार से 
एक दूजे के हो चुके थे हम दोनों भी 
जिस्म-ओ-जान के क़ौल-ओ-क़रार से 

आलोक कौशिक - बेगूसराय (बिहार)

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