आजादी की कीमत - कविता - कवि प्रशांत कौरव

मिली नही आजादी गफलत से बूढ़ी माँ ने बेटा खोया है।
राखी चीख चीख कर बोली हमने अपना भैया खोया है।

पापा छोड़ गए हमको तन्हा क्या वो आवाज झूठी थी।
उनसे पूछो आजादी का मतलब जिनकी मेहंदी छूटी थी।

लतफत लाश लहु की देखी भारत माँ कितनी रोई होगी।
छाती सूख गई होगी उसकी जब अपनी संताने खोई होगी।

आजादी की खातिर कितनी महिलाओं ने सिंदूर गवाया है।
तब जाकर हम सबने घर घर मे झंडा लहराया है।

गुलामी का खंजर घुसा रहा सीने में फिर भी नही चीखे।
अपने वतन के जाबाज सूरमा कभी झुकना नही सीखे।

उनकी तलवारें मुगलों और गोरों के सीने में गढ़ी रही।
कुछ भी हो पर धर्म के धनुष की प्रत्यंचाये चढ़ी रही।

नाम अमर हो जाये ये तो बिल्कुल भी बात नही थी।
सामने से लड़े दुश्मन इतनी तो औकात नही थी।

ऊधम ने डायर को मारा बंकिम ने वंदे मातरम गाया है।
तब जाकर हम सबने घर घर मे झंडा लहराया है।

जलिया बाला खूनी खेल हुआ तो नयन भर भर माँ रोई।
घर की पहरेदारी में अब्बा की आँखे रात रात भर ना सोई।

दिन में ख़ौप तो रातों में अस्मत लुटने का डर रहता था।
भागो भागो गोरे आये गली गली में सन्नाटा कहता था।

दुदमुहे बच्चे आहट सिर्फ एक सुनकर चौंक जाते थे।
कुत्ते घर की रोटी खाकर घर के सामने भोंक जाते थे।

माँओ के सामने शिशुओं को मौत के घाट उतारा जाता था।
उनकी अदालत में हमारी फरियादों को नकारा जाता था।

हमारे हिंदुस्तानियों पर चौबीस घँटे काल मंडराया है।
तब जाकर हम सबने घर घर मे झंडा लहराया है।

अपनी धरती अपनी मिट्टी में ही अपने पुरखे बेगाने थे।
फसलों के अंबार लगे पर घर में चंद आनाज के दाने थे।

भूख से बच्चे बिलख बिलख कर रोते तरुणाई भी रोती थी।
प्राणों से प्यारी भारत माता निशदिन एक वेटा खोती थी।

अत्याचार इतना कि सहनशीलता दम तोड़ा करती थी।
पागल होकर माँऐ कतरे कतरे को जोड़ा करती थी।

हँसते खेलते जीवन मैं जहर रुबाई का भरना पड़ता था।
जीवन जीने से पहले सौ बार तिल तिल मरना पड़ता था।

आज कम तो कल ज्यादा अत्याचार सहना पड़ता था।
डर के मारे अपने ही घरों में कैदी बनकर रहना पड़ता था।

अपने पुरखों ने अपनी खातिर यातनाओं को पाया है।
तब जाकर हम सब ने घर घर मे झंडा लहराया है।

कवि प्रशांत कौरव - गाडरवारा (मध्यप्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos