जलती धरती मन मेरा - कविता - अतुल पाठक

न पेड़ रहा न डाली 
खत्म हो रही हरियाली
पशु पक्षी जीव जन्तु आज नहीं सुरक्षित हैं
आधुनिकता के मद में लोग बड़े कलंकित हैं
किस ओर जीवन मैं पाऊँ
जलती धरती मन मेरा.......

धरा सुंदरी से जग प्यारा
जगमग जगमग प्रभात हमारा
दिनकर की प्रचंड गर्मी से
हो रहा हाल बेहाल हमारा 
किस ओर सुख चैन मैं पाऊँ
जलती धरती मन मेरा.......

दिन रात धरती तपती है
बिना कुछ कहे सब सहन करती है
सहनशीलता का उदाहरण लूँ तेरा
हृदय अम्बर जैसा है तेरा
जग में तुझ जैसा संयम सहनशील कहाँ मैं पाऊँ
जलती धरती मन मेरा.......

हवाओं का है रुख बदला
कभी मेघ कभी बरखा
कभी आँधी कभी तूफ़ान
आज रिमझिम रिमझिम बूँदों ने
भिगोया अंतर्मन मेरा
जलती धरती मन मेरा.......

जीवन में प्रेम का भाव खो रहा
पीड़ा से धरती का अस्तित्व रो रहा
रोज लिखी जाने वाली डायरी का कागज़ आज कोरा ही रहा
अपार दुखों का लगता डेरा
जलती धरती मन मेरा......

अतुल पाठक - जनपद हाथरस (उत्तर प्रदेश)

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