महान क्रिकेटर - कहानी - पम्मी कुमारी

स्वाभिमान की लडाई लडने वाले लोगों को ही दुनिया सम्मान करती है।
इतिहास का एक महान क्रिकेटर जो वंचित/पीडित वर्ग से था, जो अम्बेदकर जी के साथ काम करना छोड़कर गांधी जी के साथ काम करना स्वीकार किया और इतिहास के पन्नों से अलग कहीं खो गया। यदि आपसे पूछा जाए कि कुछ महान भारतीय क्रिकेटर्स के नाम बताइये, तो आप झट से गावस्कर, कपिल देव,रवि शास्त्री, राहुल द्रविड, सचिन तेंदुलकर जैसे दर्जनों नाम गिना देंगे। इन क्रिकेट के खिलाड़ियों के नाम को बुजुर्ग से लेके बच्चा तक जानता है, किन्तु एक महान खिलाड़ी ऐसा भी था जिसका नाम शायद ही किसी को पता हो ! वे थे पालवंकर बालू ! भारतीय क्रिकेट के पहले, सामाजिक व्यवस्था में अछूत बनाए गये खिलाड़ी।

महाराष्ट्र के पालवंकर उस समय क्रिकेट के चैंपियन थे, जब गावस्कर, कपिल देव जैसे पैदा भी नही हुए थें। सन 1876 में अछूत परिवार में जन्मे पालवंकर पहले अंग्रेजी सेना में सिपाही पद पर कार्यरत थें किन्तु उन्हें क्रिकेट का शौक था। उस समय क्रिकेट केवल अंग्रजो और सवर्णो का ही खेल था।
पालवंकर को सबसे पहले पुणे के पारसी क्लब ( उस समय पूना क्लब) में पिच साफ करने का काम मिला। उसके बाद साल 1892 में उन्होंने यूरोपियन के क्रिकेट क्लब के लिए प्रैक्टिस नेट  और पिच बनाई, यही पर एक अंग्रेज खिलाड़ी ने उन्हें नेट पर गेंदबाजी करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी धीमी बायें हाथ की गेंदबाजी ने अंग्रेज खिलाड़ियों को बहुत प्रभावित किया खास कर ग्रेग को , ग्रेग ने पालवंकर की काफी मदद की।

अपने प्रभावशाली खेल के कारण वे काफी चर्चित हो गए थें, हिन्दू क्रिकेट टीम उस समय अंग्रेजों से हार जाती थी अतः पालवंकर को हिन्दू टीम में लेने की सोचा गया।
हिन्दू चयनकर्ताओं के लिए एक अछूत जाति के क्रिकेटर को लेना बड़ा मुश्किल फैसला था, किंतु अंग्रजो की मजबूत टीम को देख के पालवंकर को लेना उनकी मजबूरी थी। वही हुआ, 1906 और 1907 के टूर्नामेंट में पालवंकर ने मजबूत यूरोपीय टीम को हरा के हिन्दू क्रिकेट टीम को दो बार जीत दिलाई। 1911 में इंग्लैंड दौरे में उन्होंने 19 के औसत में 114 विकेट लिए थें।1905 से वर्ष 1921 तक, उन्होंने 15.21 के औसत से 179 विकेट लिए।
इतना सब करने के बाद भी पालवंकर को बल्लेबाजी का मौका नहीं मिलता था , क्यों कि बल्लेबाजी पर केवल सवर्णो का ही अधिकार था।

भेदभाव का सामना तो खूब ही करना पड़ता था जाति के कारण बहुत बार टीम के बाहर रहना पड़ता था। उस समय  बाबासाहब अम्बेडकर सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ़ अपना अभियान चलाए हुए थें। पालवंकर और बाबा साहब एक दूसरे के मित्र भी माने जाते थें। पालवंकर उस समय अछूतोद्धार का काम भी करते थे कहते हैं कि बाबा साहब पालवंकर से काफी प्रभावित थें, और समझते थे कि सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में वे बेहद मददगार साथी साबित होंगे। बाद में हुआ यह कि पालवंकर की लोकप्रियता को देखते हुए गांधी जी उनके सम्पर्क में आये तो पालवंकर पक्के गांधीवादी हो गए, एक दम से गाँधी जी के साथ काम करने लगे। 1933 में हिन्दू महासभा के टिकट पर उन्होंने चुनाव लड़ा किन्तु हार गए।
तब तक बाबा साहब सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन के कारण काफी प्रभावशाली और लोकप्रिय हो गए थें। पक्के गांधीवादी बन चुके पालवंकर और बाबा साहब के बीच विचारों को लेकर दूरियां पैदा हो चुकी थीं, अतः 1933 में बॉम्बे विधानसभा के लिए पालवंकर फिर से हिन्दू महासभा की सीट से बाबा साहब के खिलाफ़ चुनाव लड़े किन्तु हार गए। गांधीवादी बने पालवंकर एक महान खिलाड़ी होने के बाद भी इतिहास के पन्नों से अलग कहीं  खो गए जबकि गांधी जी से वैचारिक भेद रखने वाले बाबा साहब अमर हो गए। यदि पालवंकर और बाबा साहब मिल के एक साथ एक ही वैचारिक धरातल पर सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन के लिए संघर्ष करते तो समाज की लड़ाई बहुत आसान हो गई होती।

पम्मी कुमारी - रुन्नीसैदपुर, सीतामढ़ी (बिहार)

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