सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
दद्दा की टुपिया - कहानी - सतीश श्रीवास्तव
गुरुवार, जुलाई 23, 2020
दद्दा की टुपिया पूरी सोलह साल पुरानी हो चुकी थी और साल दर साल टुपिया के ऊन के रेशे तार तार होने लगे थे।
यह बात भी सच है कि दद्दा की टुपिया ने अपने सत्रहवीं साल का आधा गुजारा चला दिया था। आज भी दद्दा की टुपिया किसी बादशाह की तरह उनकी इज्जत बरकरार रखे हुए थी, यह बात भी नहीं कि दद्दा ने इस बीच अपनी टोपी के नवीनीकरण का प्रयास न किया हो, उन्होंने कई बार विचार किया किंतु गृहस्थी के जाल जंजाल में हर बार उन्हें अगली बार के लिए रोक दिया और आज तक टोपी बदलने का प्रश्न धुंधलके में अस्त होता आ रहा है। टुपिया के ग्यारहवें साल में भयंकर सूखा पड़ गया था ऐसे काल में जब कि रोटियों का अकाल पड़ा हो तब टोपी का सवाल कहां तक अच्छा लगता और फिर पेट की चिंता के आगे सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं। वारहवीं वर्षगांठ आई तो उनके नाती के दस्टोन समारोह दद्दा की टोपी के रिन्यूअल में बाधक बन गया, फिर सूखा, फिर ओलावृष्टि, फिर अतिवृष्टि सब कुछ ऐसा घट रहा था मानो दद्दा से कहते हो कि दद्दा हम तुम्हें टोपी नहीं बदलने देंगे।
सरकार ने ओलावृष्टि का मुआवजा भेजा तो गांव के चाटुकार सब हजम कर गए, दद्दा फिर आसमान निहारते रह गए। दद्दा जब भी अलाव पर बैठते तो निश्चित ही अपनी पुरानी यादों को ताजा किया करते थे यह भी सच है कि दद्दा अकेले बैठना और अकेले चाय पीना पसंद नहीं करते थे जब तक दस-पांच लोग न बैठे हों चाय ही नहीं बनती थी।
दद्दा अपनी टोपी के बारे में बताते हैं कि "जमाना गुजर गया टोपी को खरीदे तब तो मेरे हाथ पैरों में इतना दम था कि साइकिल से शहर जाता था और लौटकर घर आ जाता था"
गांव से शहर पूरे आठ कोस की दूरी पर था और दद्दा बड़ी आसानी से साइकिल से यह सफर तय किया करते थे। क्योंकि यातायात के साधन नहीं थे। आज तो लोग साधनों के इंतजार में ही घंटों खराब कर देते हैं, चार कदम चलना भी मुश्किल हो गया है आज।
गांव के लोग भी दद्दा से टुपिया बदलने का उलाहना देने लगे थे, लेकिन दद्दा कैसे बताएं उनकी अपनी समस्याएं हैं।
उनकी अपनी उलझनें हैं फिर भी सबकी बातों को हंसकर टाल दिया करते थे।
ठीक है अब की फसल पर पहला काम टुपिया खरीदना ही होगा, अबकी बार दद्दा दृढ़ संकल्पित थे कि जब भी बेटा रामसिंह मंडी जाएगा फसल लेकर, एक नई टोपी जरूर ही मंगवा लेंगे।
राम सिंह दद्दा का बड़ा बेटा था, शुद्ध किसान था।
राम सिंह की मेहनत की दम पर ही पूरा घर चल रहा था।
राम सिंह और उसकी पत्नी माया खेती के अलावा मजदूरी का काम भी कर लिया करते थे, और फिर पेट के लिए चोरी के अलावा कुछ भी कर लेना बुरी बात नहीं है। हालांकि रामसिंह और माया का मजदूरी वाला काम दद्दा को बहुत खलता था, यह सब उन्हें उनकी शान के खिलाफ लगता था किंतु खोखली शान से पेट नहीं भरा जा सकता।
कल्याण सिंह जी को सारा गांव दद्दा कह कर ही पुकारता था, उन्होंने अपनी उम्र के सत्तर साल पूरे कर लिए थे, यह बात भी सच है कि दद्दा ने दुनिया की ऊंच-नीच का बहुत पास से और प्रायोगिक अनुभव किया था।
दद्दा की गांव में अच्छी खासी इज्जत रही साथ ही साथ आस-पास के गांव में अच्छी धाक थी। उनकी यह धाक यह इज्जत उनके व्यक्तिगत व्यवहार से ही थी। आज के दौर में तो धाक और इज्जत के मायने ही बदल गए हैं। दद्दा की दूसरी विशेषता यह थी कि पंचायत का सही-सही निपटारा करते थे उनको यदि पंचों का सरताज कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
दद्दा का पंचायत में पहुंचना ही इस बात की पुष्टि करता था कि अब सही-सही न्याय ही होगा। मुंह देखा पंच फैसला उनके स्वभाव में नहीं रहा कभी भी। पंचायत निपटाने की तजुर्बेकारी से उन्हें अच्छी खासी इज्जत मिलती थी, उनकी बात पर लोग भरोसा करते थे उनकी सब जगह इज्जत थी।
अत्यंत गरीबी में जीवन यापन करने के बाद भी इज्जत को संभाल कर रखना किसी तपस्या से कम नहीं होता।
पूरे गांव में और आसपास क्षेत्र में चारों ओर इज्जत होने के बाद भी घर में दद्दा की इज्जत धीरे-धीरे घट रही थी।
दद्दा इस बात से अत्यंत दुखी रहा करते थे किन्तु किसी को अपना दर्द नहीं बताते, उनका तो सदैव यही सोच रहा कि दूसरे मजाक उड़ाने के अलावा कुछ नहीं करेंगे वे अक्सर यह पंक्तियां सुनाया करते
"पौंछ सके जो तेरे आंसू उसको सुना कहानी रे,
वरना बदनामी के कारण होगा पानी पानी रे।"
दुनिया भर की पंचायतें चुटकी में निपटाई हैं, अनेक मामले सुलझाए हैं, तनावग्रस्त परिवारों में शांति का मंत्र फूंका है, किंतु आज उनका ही घर पंचों की शरण में है, पंचों की पंचायत का मोहताज है।
घर में तनाव बढ़ने पर पंचायत बैठी है दद्दा के तीन लड़के अलग अलग रहने का झगड़ा कर रहे हैं। छोटा लड़का अभी तक कुंवारा है और मां का इकलौता सहारा भी। बड़ी बहू मंथरा को मात करने वाली थी। हमेशा घर में विघ्न पैदा करने में बड़ी बहू माया विशेष भूमिका निभाती।
बस यह सब स्वतंत्र जीवन जीने की चाह का ही नतीजा था, बूढ़े माता-पिता तो उसकी नजर में व्याधि बन गए थे उसे लगता कि उन्हें कहीं जाकर छोड़ दिया जाए किंतु रामसिंह के आगे बहू चुप हो जाती थी। ऊपर अटारी में बैठे दद्दा खाना खा रहे थे माया ने रोटियां पटकते हुए कहा था "काम के न काज के दुश्मन अनाज के" दद्दा मन मसोसकर रह गए।
उसको ऐसा लगा यह धरती फट क्यों नहीं जाती जिसमें समा जाएं, यह आसमान मेरे ऊपर टूट क्यों नहीं पड़ता।
ईश्वर यह सब दिन क्यों दिखा रहा है मुझे।
मझली बहू शोभा कुछ ठीक चल रही थी। ठीक क्या बस दद्दा को चाय पानी का इंतजाम कर दिया करती थी, वह चार रोटी का इंतजाम क्या कर रही थी सारे गांव में ढिंढोरा पीटती फिरती कि अगर मैं दद्दा को रोटी ना दूं तो भी भूखे ही मर जाएंगे, एक एक बीड़ी को तरस जाएंगे दद्दा।
कोई ख्याल नहीं रखता उनका।
सब अपनी अपनी मस्ती में मस्त हैं हमारे ही हिस्से में आये हैं।
घर में कभी कोई रिस्तेदार आ जाता तो ऐसा प्रदर्शन करते कि दुनियां में इनसे बड़ा माता-पिता की सेवा करने वाला कोई नहीं है, उनके सामने पूरी व्यथा-कथा रोना-धोना सुनाया जाता और अपने आप को हीरो बना कर सारे परिवार को खलनायक बनाना प्रमुखता से रहता था।
उन्होंने कब कब क्या क्या खाया उन्हें क्या क्या खिलाया। कैसे उन्होंने एक दिन कपड़े गंदे कर दिए थे। कैसे उन्होंने छुपकर लड्डू खाए थे। कैसे उनकी देखभाल की जाती है, अपने आप को श्रवण कुमार से कम बताना स्वीकार नहीं था।
सब कुछ बताया जाता रिश्तेदारों को, बीमार हो गए थे तो कैसे डॉक्टर को दिखाया था, कैसे हमने पैसे जुटाए थे, ऐसे बखान किया जाता जैसे किसी के साथ एहसान किया जा रहा हो। दद्दा सुनते तो मन ही मन बहुत दुखी होते।
इतना सब करते करते एहसान के नीचे दबे दद्दा का पीतल का हुक्का मझली बहू ने बेच दिया दद्दा खून का घूंट पीकर रह गए थे। घर में छोटे लड़के ने नाराजगी जाहिर की थी दादा ने कह दिया था कि मैंने ही कह दिया था।
दद्दा का हुक्का पीतल का था और बहुत पुराना था, समझो कि पुरखों की एक निशानी खत्म हो गई थी।
दद्दा के पास जब कोई खास आदमी बैठने आता तो वहीं पीतल का चमचमाता हुक्का पेश किया जाता था और फिर कोई उसकी तारीफ किए बिना नहीं रहता था। दद्दा बताते थे फिर हुक्का का पूरा इतिहास।
अतिथि सत्कार का एक साधन घर में कम हो गया था।
दद्दा कभी कभार बहू शोभा की खरी खोटी बातें और रोना धोना सुनते तो बड़े दुखी हो जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि मैंने तो अपने बच्चों को बड़ी मुश्किल से पाला है, बड़ा किया है और उन्हें दो वक्त की रोटी खिलाने में कष्ट हो रहा है, उनकी कोई जवाबदारी नहीं है क्या, इनका कोई फर्ज नहीं है क्या, पिता की देखरेख करने का दायित्व नहीं है ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाते रहते दद्दा।
उनका परिवार अभी तक एकता की कसमें खाने के लिए जाना जाता था, आदर्श परिवार के रूप में पहचान थी किंतु अब घर में माया का मायाजाल फैल चुका था। अभी तक सारा हिसाब किताब बड़े लड़के के पास ही था किंतु अब मतभेद बढ़ने से बटवारा होना ही था। बंटवारा होना था जमीन का, बटवारा होना था जायदाद का, जेबरों का, बटवारा होना था खेतों खलिहानों का, बटवारा होना था लकड़ी और कंडों का, बंटवारा होना था बैलगाड़ी का और बैलों का, बटबारा होना था बर्तनों का और खटियों का, किंतु बटवारा कैसे होगा बीमार मां का, किंतु कैसे होगा बंटवारा दद्दा की सोलह साल पुरानी टुपिया का और उनके टूट टूटकर टुकड़े टुकड़े बिखर गए सपनों का। दद्दा कभी कभार गुस्सा में आकर कह देते एक कुआं अपने पानी से हजारों लोगों की प्यास बुझाता है उन्हें तृप्त करता है किंतु हजारों लोग मिलकर एक कुंये को तृप्त नहीं कर सकते, कैसी विडंबना है यह। यही हालत थी दद्दा की।
बच्चों के पालन-पोषण से शादी ब्याह तक जिम्मेदारियां अकेले दद्दा ने ही तो निभाईं हैं और अपनी शान को बनाए रखा किंतु आज दद्दा के तीनों लड़के मिलकर अकेले दद्दा को खाना भी नहीं दे सकते खैर वैसे दद्दा इसे भी विधाता का विधान मान कर चलते हैं।
पंचों ने विचार विमर्श करके बंटवारा कर दिया था दद्दा मझले बेटे के हिस्से में आ गए थे।
दद्दा ने पूरी पंचायत के दौरान सिर से हाथ नहीं हटाया था उन का कष्ट आज चरम सीमा पार कर चुका था माथे की झुर्रियों में आज अनंत वृद्धि हुई थी इन झुर्रियों में कुछ वृद्धावस्था की रेखाएं थी और कुछ मानसिक वेदना की लकीरें।
दद्दा ने आज अपनी पुरानी और जर्जर टुपिया को तार-तार होते देखा था उन्हें लगा कि अपना अस्तित्व भी अब तो टुपिया की तरह ही तार तार हो गया है। उनका जीवन भी अब टुपिया की तरह ही हो गया है यह टुपिया तो बदली जा सकती है लेकिन यह वेदना यह कष्ट कैसे बदला जाएगा।
लगता है अनंत विश्राम के समय ही सही विश्राम मिल सकेगा।
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