विवाहिता - कविता - हेमलता शर्मा

आज रिश्ता और रास्ता 
मानो खत्म हो गया  ! 
आज पाँव नही बल्कि
मानो दिल थक गया। 
मुझे समझ न सका 
कोई भी मेरे सिवाय। 
तब अहमियत जान गयी
जीने का है यह
असली अंदाज। 
बहुत फेंकते है पत्थर 
जब चाहे हाथ में लिए
जो तेज लगते ही
भग्न करते हृदय को। 
तब इन पत्थरो से 
राह बना चढ़ रही हु
शीर्ष शिखर लक्ष्य पाने। 
मैं ! हर रोज बढ़ रही हु 
शिखर स्वप्न के करीब। 
जब एक बार शिकायत 
भेजी ईश्वर के दरबार 
तो कहा उन्होंने क्षण में
अब नही हु तेरा सारथी 
तेरे रथ को मुझसे बेहतर 
चला रही है खुद ही जब 
तो मेरा क्या काम??
यह सुन वचन 
मौन और मुस्कान समेट
खुद ही हो गयी लीन
खुद के किरदार में
विरहनी मीरा बन।। 

हेमलता शर्मा - अजमेर (राजस्थान)

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