अहंकार की नशा में , मर्यादा दी फेंक।।१।।
लिया हाथ कानून को , दी जूतों से दण्ड।
दौलत पद ऐसी नशा , दुष्कर्मी उद्दण्ड।।२।।
कदाचार आचार बन , जीता मानव लोक।
संस्कार व्यभिचार बन, पाता जीवन शोक।।३।।
लघुता से प्रभुता मिले , भूल गया संसार।
भौतिकता मद कोप से , बनी प्रकृति संहार।।४।।
मानव है दानव बना , पशुता ले शैतान।
बेजु़बान पशु हो विहग, हिंसा रत इन्सान।।५।।
विस्मित लखि नर क्रूरता , मानवीय यह पाप।
गर्भवती हथिनी मरी , पा बारूद संताप।।६।।
खेल रहे सब प्रकृति से , काट रहे वनवृक्ष।
मान रहे पुरुषार्थ को , हिंसक भालू रीक्ष।।७।।
कैसा यह जनतंत्र है,कैसी विधि अभिव्यक्ति।
झूठ लूट हिंसा कपट , लगी मनुज की शक्ति।।८।।
समरसता की कल्पना, कैसे सम्भव आज।
धर्म जाति भाषा धरा , लेकर लड़े समाज।।९।।
नवप्रभात शुभ प्रगति का,नीति प्रीति हो देश।
भूले जब परमार्थ को , क्या बदले परिवेश।।१०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली