गुल्म - कविता - मयंक कर्दम

सुंदर  गुल्म वेदना सी,
अभ्यास में चेष्टा रखती।
आदर नेत्र में  भरे  हुए,
प्रफुल्लित रुचि रखती॥

मृदा  में हक  जमाये,
जीर्ण को गुप्त रखती।
अतित को पिछे धकेल,
जवानी मृदुल रखती॥

भाव अतुल जढ़  रखे,
जिस्म, पद-प्रहार करती। 
बंजर जमी, सूखी लता,
पुष्प की आस रखती॥

झुलस न सकी कभी,
सूरज से नाता रखती।
पहाड़ो पे, कहीं झीलो मे,
उमंग में मिठास रखती॥

कांटे भी तो चुबते होंगे,
दर्द अपना समेटे रखती।
मोन सी गुल्म भी बस,
जीने की प्यास रखती॥

शोहरत न गुलाब जैसी,
कांटो से भी प्रेम रखती।
मयंक भी मानता उसे,
मुर्दे में जब जोश रखती॥

मयंक कर्दम - मेरठ (उ०प्र०)

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