सती प्रथा का अन्त - कहानी - पम्मी कुमारी

सती प्रथा और राजाराम मोहन राय की एक सच्ची कहानी पढ़ने के पश्चात उस कहानी पर विश्वास करना असम्भव सा लगता है, वैसे तो हिन्दू धर्म में देवदासी प्रथा, नियोग प्रथा, विधवा प्रथा, मुंडन प्रथा, बालिका विवाह प्रथा, पर्दा प्रथा आदि अनेक अमानवीय कुप्रथाऐं थी, जिन्हें धर्म के ठेकेदारों ने पितृसत्तात्मक मानसिकता बनाये रखने के लिए शदियों तक खत्म नही होने दिया, नारी जीवन पर इन कुप्रथाओं का प्रभाव आज भी समाज में स्पष्ट दिखाई पड़ता है, डायन और टोहनी की आड़ में महिलाओं को आज भी मोप लिंचिंग से पीट पीटकर मार दिया जाता है। इतिहास में इन प्रथाओं की वजह से नारियों के साथ क्या क्या सितम ढाए गए होंगे ?, सोचने से ही आज हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।

सतीप्रथा का अंत जिस तरह किया गया है, वह अपने आप में एक भयानक मिशाल है, पति के मर जाने पर पत्नी को भी जीवित चिताग्नि में जला दिया जाता था, बेमेल विवाह के पश्चात 80 साल के बूढ़े के साथ 12-13 साल की पत्नी को जीवित जला देना कौनसा धार्मिक कार्य था लेकिन धर्म के ठेकेदारों ने इसे धार्मिक मान्यता का रूप दे दिया था असल मे यह अक्षम्य अपराध और महापाप था।

राजराम मोहन राय को उसकी भाभी बहुत प्यार करती थी, उसकी हर छोटी-छोटी जरूरतों की पूर्ति का ख्याल रखना उनके दिनचर्या का अंग था। राजाराम मोहन राय भाभी के व्यवहार से बहुत प्रभावित थे, किसी कार्य से राजाराम मोहनराय को इंग्लैंड जाना आवश्यक था, भाभी ने विदेश जाने की सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी, निश्चित दिन को बोझिल दिल से राजाराम मोहनराय को विदा करने के कुछ ही दिन बाद बड़े भाई की मृत्यु हो जाती है, भाभी सती नहीं होना चाहती थी, परन्तु उस समय की धार्मिक मान्यता के अनुसार भाभी को जिंदा जलाने की पूरी तैयारी कर ली थी, इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ भाभी हमेशा राजाराम मोहनराय को पूर्व में कहा करती थी, परन्तु जब घर में इस तरह की परिस्थिति निर्मित हो गई तब वे विदेश में थे।

समाज के लोगों ने ढोल - नंगाडों की आवाज से भाभी की चित्कार, आर्तनाद को दबा दिया, जोर - जोर से नंगाड़े बजाकर घर से खींचते हुए भाभी को चिता में बांधकर आग लगा दिया गया।

इस कृत्य से पूर्व, देवर के लिए एक पत्र भाभी ने लिखकर उनके कमरे में छोड़ दिया था। लाचार अबला असहाय भाभी का आज कोई भी नही था, पति के देहांत के साथ-साथ जीवित भाभी के आज अपने भी सब पराये हो गए थे, चिता की आग जैसे-जैसे बढ़ती जाती आर्तनाद भी बढ़ते-बढ़ते धीमा पड़ गया।

दूसरे दिन चिता की आग ठंडी होने के बाद दोनों की अस्थियों को खोजा गया तो एक का अस्थि न मिलने पर चर्चा का विषय बन गया, बात चारों ओर फैल जाने के कारण फिर से खोजबीन शुरू हो गई, जहाँ चिता जलाई गई उसके एक ओर कुछ झाड़ी थी, अचानक लोगों का ध्यान उन झाड़ियों की तरफ गया, उन झाड़ियों में अधजली भाभी मिल गई, वह अधजली भी जीवित रह सकती थी,

हुआ यह कि जब चिता में बंधन जल गया तो जीवित रहने की अति इच्छा के कारण नजर बचा कर उन झाड़ियों में छुप गयी। नारी के प्रति इस भीमत्स धार्मिक रूप को दिखाने की उत्कंठ इच्छा ने आज भाभी को जीवित रखा था, परन्तु धर्म के ठेकेदारों के मानसिकता से पोषित समाज के राक्षसों ने उस झाड़ी से अर्दमुर्च्छित भाभी को खींचकर निकाला और फिर से चिता बनाकर उसमें जला दिया।

कुछ समय पश्चात राजाराम मोहनराय विदेश से वापस आते हैं, अपने कमरे में जाते ही भाभी द्वारा लिखा पत्र को पढ़कर उन्हें कैसा लगा होगा इसकी कल्पना करना कठिन है, मन हाहाकार कर उठा, दुःख से, पागलों की भांति जब यह पता लगा कि उस पत्र में केवल यह लिखा था कि, "देवर जी! यदि आप यहाँ होते तो मेरे साथ यह दुर्गति न हुआ होता.… !" चिता से सम्बंधित घटनाओं को सुनकर समाज के धार्मिक दरिंदो के खिलाफ आक्रोश भर चुका था, घर में रखा बन्दूक लेकर समाज के लोगों को ललकारते हुए निकल पड़े, पता नहीं कितने घायल हुए होंगे या कितने मर गए होंगे, जब आक्रोश थोड़ा कम हुआ तो अंग्रेज वायसराय से मिलकर यह कानून बनाने के लिए दबाव डाला कि सती प्रथा को तुरंत प्रभाव से गैरकानूनी घोषित किया जाय, वायसराय ने अविलम्ब इस भीमत्स प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया, तब से आज तक सती प्रथा गैरकानूनी है।

पम्मी कुमारी - रून्नीसैदपुर, सीतामढी (बिहार)

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