जिंदगी - कविता - पूजा विश्वकर्मा


भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी 
अनकही,अनछुई,अनसुनी सी हो गई थी जिंदगी 

बिना खाये ही सो जाना,देर रात तक काम करना
अपनो से दर किनार हो गई थी  जिंदगी 
भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी

जिंदा जिंदगी जीना भूल गये थे 
काम और पैसा कमाने के चक्कर मे
जरा सा वक्त मिलता मोबाइल मे घुस जाते 
स्वाद भरे भोजन को भी स्वाद से न खाते
कोलाहल अंतःपरिपूर्ण हो गई थी जिंदगी 
भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी

एक दिन सड़को पर महामारी आ गई
लाॅकडाउन के बहाने सबको लाॅक कर गई 
चिड़चिड़ा कर बालकनी से छत पर जाना 
इस रूम से उस रूम मे भटकना
कैद घर मे खत्म ही गई थी जिंदगी 
भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी

एकाएक आवाज आई, मुझे कुछ काम नही था 
इसलिए मन को भाइ
मैने कुछ बनाया है,तुम जिद्दी हो घर का खाना  तुम्हे पसंद नही
इसीलिए छत को चौपाटी सा सजाया है
अब कमरे मे लग रही थी बंदगी 
भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी
बोर हो रहे थे सोचा छत को देख ले 
आज मन इन्ही के साथ सेंक ले
देखते ही, निस्तब्ध मौन आंखे डबडबाई
चौपाटी की सारी चीजे घर मे "मां" ने बनाई 
जब हाथ से मां ने हमे खिलाई
ममता को चख अंतःआत्मा भर आई
लाॅकडाउन के बहाने अपनो को करीब ले आई थी जिंदगी 
जो भागमभाग सी हो गई थी जिंदगी।


पूजा विश्वकर्मा 'बिट्टू'
खुरसीपार 'मध्यप्रदेश'

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