द्रौपदी साहू - छुरी कला, कोरबा (छत्तीसगढ़)
अनुभूति और अभिव्यक्ति - कविता - द्रौपदी साहू
शनिवार, नवंबर 15, 2025
बाबूजी!
ये घर, जो घर लगता था
अब कितना सूना है!
आपकी याद में
जब गहन चिंतन में डूब जाती हूँ
तब मन में प्रश्न उठता है!
आख़िर जीवात्मा जाते कहाँ हैं?
वे लौट क्यों नहीं आते?
क्या कोई ऐसी युक्ति नहीं,
जिससे उन्हें वापस ला सकें!
इस चमत्कारी ब्रह्माण्ड में–
ये चमत्कार क्यों नहीं होता?
इंसानों ने
कितने कठोर नियम बना रखे हैं!
हे प्रभु!
भला है कि कुछ भले लोगों ने
कुछ बदलाव किए!
कुछ कुरीतियाँ कम हुईं!
पर... अब भी कुछ बाक़ी है।
न जाने...
और कितनी प्रतीक्षा करनी होगी?
इन बदलावों के लिए!
इनकी जड़ें भी बहुत मज़बूत हैं
पता नहीं कब डोलेगी!
जीवन साथी का संग छूट जाना।
कितना दुखदाई है!
और समाज के कठोर नियम...
इस दु:ख को और उकसाने वाले।
मैंने देखा है...
अपनी माँ को... मामी को... बहनों को...
आस-पड़ोस, रिश्तेदारों को...
इन नियमों में जकड़े हुए।
शृंगार करके, शृंगार उतरवाना,
हृदय की वेदना को और बढ़ाना।
कितना उचित है?
ऐसा नियम बनाना!
जीवन साथी बिना
संसार ही सूना हो जाता है
उनसे अथाह अनुराग
वियोग की वेदना को जन्म देती है
ये वेदना ही समर्पण में परिवर्तित हो जाती है
और जीवन भर
बेरंग ज़िंदगी को अपनाकर
संघर्षों के साथ जीने की कोशिश करते हैं
इच्छाएंँ मर-सी जातीं हैं
फिर भी
कुटुम्ब के कारण
धीरज धरतीं हैं!
अपार संघर्ष और काँटों भरे जीवन को
जीने के लिए मजबूर
बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए
ख़ुद जलती है।
पल-पल अश्रु बहते हैं कि
पिता के प्रेम की पूर्ति
वह कर नहीं सकती। पर...
अधिक स्नेह देकर उनका पालन करती है।
बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो जाते हैं
योग्य बन जाते हैं
पर इनमें कुछ ही इन संघर्षों को समझ पाते हैं।
और कुछ... उन्हें... और रूलाते हैं।
कोसती है ख़ुद को
और अपनी क़िस्मत को!
क्योंकि संघर्ष के सपने साकार नहीं हो पाते!
आँखों से आँसू सूखते ही नहीं,
न कोई उनके पास बैठते, न हाल पूछते,
थोड़ा ही सही पर संवाद आवश्यक है।
छोटी-सी ख़ुशी कितना सुकून दे जाती है।
नीरस जीवन में रस भर देती है!
पर अफ़सोस...
स्वार्थ ने मनुष्य को कितना असंवेदनशील बना दिया!
अब तो जीवन निरूद्देश्य हो गया।
अब केवल उस दिन की प्रतीक्षा करती है
कि कब उसके प्राण छूटे!
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