जो कब की कट गई - नज़्म - छगन सिंह जेरठी
रविवार, नवंबर 16, 2025
हम दोनों अपनी अपनी पतंग उड़ाते,
आसमान में लड़ गए।
ना कटती बने ना उड़ती बने,
फिर कुछ यूँ उलझ गए।
दर्शक जो कह रहे थे,
आख़िर वही हुआ
उसकी तो पतंग छत पर,
सलामत उतर गई।
एक मुद्दत से तलाश में हैं,
आख़िर हमारी किधर गई।
उसका वो ढील देना ऐसा फ़रेब था,
हम उस डोर को अब भी थामे हैं,
जो कब की कट गई।
गर सब कुछ अपने हाथों में हो,
कोई क्यों अपनी पतंग कटाएगा?
साँसों की डोर पर क़ाबू पाना
गर तुमको आ जाए,
यह तो तय है फिर छगन,
तू ख़ुद ख़ुदा हो जाएगा।
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