बंद दरवाज़ें - कविता - निखिल पाण्डेय श्रावण्य

बंद दरवाज़ें सूने आँगन,
झाँझर बोले टपकें बूँदन।
छत की सीली साँसें गुनतीं, 
बीते क्षण की मौन धुनन॥

दीवारों पर रंग उतरता,
बीते त्योहारों का कर्ता।
अँगना पूछे - "कब लौटोगे?"
मन कहता - "अब कौन धरता?"॥

थकी हवा जब खिड़की छूती,
बुझी दीप की बात हैं कहती।
एक समय था, गीत थे बजते,
अब तो चुप्पी रात हैं बहती॥

बंद दरवाज़ें, धीमे सुर में,
सपने सूखें, पर मन न बँधे 
टपक-टपक हर बूँद–
कहे कहे कंधों की थकनें।

निखिल पाण्डेय श्रावण्य - रीवा (मध्यप्रदेश)

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