हिंदी का लेखक - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
शुक्रवार, जून 20, 2025
हिंदी के लेखक
कभी सही समय पर नहीं बोलते।
वे तब चुप रहते हैं,
जब एक पूरी जाति को उजाड़ा जा रहा होता है,
जब संविधान की पीठ पर सत्ता अपनी चप्पलें घिस रही होती है,
जब एक पूरी पीढ़ी को ग़ुलामी का नया पाठ पढ़ाया जा रहा होता है।
वे चुप रहते हैं—
जब बच्चे पूछते हैं:
"सर, क्या इतिहास अब भी कोई सज़ा है?"
और इतिहास किताबों से ख़ून टपकाता है।
हिंदी का लेखक
सरकारी आदमी होता है।
उसके पास एक अदृश्य पहचान पत्र होता है—
‘न बोलने वाला प्राणी’,
जिस पर लिखा होता है:
“मैं कवि हूँ, लेकिन असुविधाजनक नहीं।”
वह कहता है:
“मत लिखो, नौकरी चली जाएगी।”
जैसे नौकरी एक आत्मा हो
और सच बोलना कोई अधार्मिक कर्म।
हिंदी के लेखक
गोष्ठियों में हँसते हैं,
साहित्य अकादमी की चाय में
दमन की चीख़ें घोलकर पी जाते हैं।
उनकी कविताएँ
पेड़ों, फूलों, ऋतुओं, और माँ के नमक से बनी होती हैं—
पर वे
गर्भवती मज़दूर की लाश पर एक भी पंक्ति नहीं लिखते।
वे बस्ती पर गिरे बुलडोज़र के लिए
कविता नहीं—
एक "शोक सन्देश" टाइप कर देते हैं।
जब भी
सत्ता नरसंहार को "विकास" कहती है,
हिंदी का लेखक
"प्रेरणा" के नाम पर
एक नई कविता सुनाता है,
जिसमें नदी बह रही होती है
और वह नदी ख़ून की होती है
जिसे वह "शांति" कह देता है।
कभी वे पुरस्कार लौटाते हैं
तो वह भी तयशुदा ढंग से,
जैसे कोई फ़ॉर्म भर रहे हों—
विरोध भी उनके लिए एक सरकारी प्रक्रिया है।
हिंदी के लेखक
नदी की तरह नहीं बहते,
वे सरकार की नाली में सड़ते हैं।
उनके शब्दों में गरमी नहीं होती,
बस काग़ज़ के कोने पर बैठी एक बुज़दिल हवा होती है।
उनके पास
कोई स्त्री की चीख़ के लिए शब्द नहीं,
किसी किसान की आत्महत्या के लिए साँस नहीं,
किसी दलित के जलते शरीर के लिए आँख नहीं।
वे बस कहते हैं:
"मत लिखो, नौकरी चली जाएगी।"
मानो यह देश
कविता के लिए नहीं,
वेतन स्लिप के लिए बना हो।
जब कवि
सिर्फ़ बचा रहना चाहता है—
तो कविता
मर जाती है।
और हिंदी का लेखक
उस शव का
शृंगार करता है।
कहता है:
“यह समर्पण नहीं, संवेदना है।”
लेकिन हम जानते हैं—
वह केवल चुप है
क्योंकि बोलने से
उसकी मंडी की कुर्सी हिलती है।
कवि की चुप्पी
उसका सबसे घिनौना वक्तव्य होती है।
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