खँडहर-सा घर - कविता - निवेदिता
रविवार, मार्च 02, 2025
ख़ाली सा शहर, जिसमें एक खँडहर-सा घर।
दरारों का जाल, आधी पूरी सी दीवार।
टूटी-सी खिड़की पर तकती नज़र
झाँकती सुनी राहों को हर पहर।
हवा के हर झोखे पर कराहता
कई पुराने तालों से जड़ा, बंद-खुला-सा वो दर।
फिर ठोकर लगाती वो चौखट, जिस पर आने जाने वालों की कुछ न ख़बर।
बहुत बोलती हैं यहाँ की ये, गुमसुम ख़ामोश-सी सहर।
कोई आए तो बताएँ
दास्ताँ-ए-शहर,
सैलाब आया था एक बड़ा-सा उस रोज़,
साथ ले एक लहर
कहा था उसने, बस ये पल भर का तूफ़ान है थम जाएगा,
बस्ती ही उजाड़ ले गया वो क़हर।
अब जब कोई लाँघता है चौखट को उस घर की,
बातूनी वो ख़ामोशी, न जाने क्यों जाती है ठहर।
जैसे उसे पता है, उसका कुछ कहना,
इस बार डूबा ले जाएगा,
हर क़तरा बहा ले जाएगा,
उफान कुछ इस तरह मचाता है वो शांत तूफ़ाँ का मंज़र,
मन है वो मेरा एक सुना ख़ाली शहर।
मुरझे फूलों से ही सही महकता है मगर,
ख़्वाबों से सजा मेरा खँडहर-सा घर।
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