महात्मा - कविता - महेश कुमार हरियाणवी
बुधवार, अक्टूबर 02, 2024
जलते-बिलखते शोलों ने फिर
गांधी जी विचारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
दधक उठी है सारी धरती
मेघ से चलती गोलियाँ।
देख सहम गई भोली जनता
अत्याचारी टोलियाँ।
छल चलन के पलते दौर में
नन्हे नैनं निहारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
स्नेह सब्र का ग़ायब क़ीस्सा
प्रेम में मतलब साध रहे हैं।
केवल बढ़ता लालच ग़ुस्सा
जाति-धर्म विवाद रहे हैं।
मानव से मानव को संकट
मुख दौलत सत्कारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
अफ़ग़ान पाक सीरिया ने
लाश बिछा दी धरती पर
पूर्व-पश्चिम पखवाड़े में
आग लगी है अरथी पर।
व्यर्थ-गर्थ में चीनी चीख़े
कहें सागर हमारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
कहीं बन्दूक की गोली है
कहीं अणु धधकते आग।
वक्त है थोड़ा चलना ज़्यादा
कहे भाग सके तो भाग।
अपने भी है ग़ैरों जैसे
बड़े सूने सितारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
जलते-बिलखते शोलों ने फिर
गांधी जी विचारे है।
पुनः चले आओ बलधारी
जनता शान्ति पुकारे है॥
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