विशाल कपूर 'पोपाई' - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अधरंगी बूँद - रेखाचित्र - विशाल कपूर 'पोपाई'
शुक्रवार, सितंबर 13, 2024
नमस्ते जी! वैसे तो मैं यहाँ पर नमस्ते की जगह वाहेगुरु जी, अस्सलामु अलैकुम, या गुड इवनिंग भी बोल सकती थी। पर आज अगर मैं बोल पा रही हूँ तो उसका पूरा श्रेय मैं इक लेखक को देना चाहूँगी क्योंकि इसी का ध्यान मुझ पर गया। जन्म तो मेरा किसी चित्रकार की ग़लती से हुआ पर मुझे सुना इसने। ये लेखक महाशय जो कि एक अभिनेता भी हैं अपने किसी मित्र के घर गए। वो मित्र एक चित्रकार हैं। उस समय रंगारंग चित्र बना रहे थे। दोनों में गपशप हो रही थी। सुख बाँटकर ज़्यादा किया रहा था, और ग़म को बाँट कर आधा किया जा रहा था। इसी दौरान चित्रकार महोदय ने अपने रंग वाले ब्रश को वहीं रखी पानी की एक कटोरी में धोया ताकि उस ब्रश को दूसरे रंग में रंग सके, पर वो दूसरा रंग ख़त्म हो गया था। शायद इसीलिए चित्रकार ब्रश हाथ में थामे ही अन्दर वाले कमरे से रंग लेने चला गया और इसी दौरान मेरा जन्म हुआ। आप लोग भी शायद उत्सुक होंगे मेरा परिचय जानने के लिए कि मैं जो बोल रही हूँ। मैं हूँ कौन? तो इस रहस्य से पर्दा उठाते हुए मैं आप सबको अपना नाम बताती हूँ। मैं हूँ बूँद! अधरंगी बूँद। जी हाँ, सही सुना आपने। चित्रकार के अपनी कुर्सी से उठते वक्त उस थोड़े गीले ब्रश से टपकी थी मैं। चित्रकार का ध्यान नहीं गया मुझपे, पर जैसे ही मैं गिरी उस लेखक ने मेरी तरफ़ देखा। थोड़ी ऊँचाई से गिरी थी तो घबराहट से आह निकल गई थी मेरी। लेखक ने शायद वो आह सुन ली थी। एकदम से मुझसे पूछ बैठा कि कहीं मुझे चोट तो नहीं लगी। मैं उसके इस भोलेपन पर मुस्कुरा दी थी। पर उस दिन मैं सिर्फ़ मुस्कुराई नहीं थी। बल्कि मैं ख़ुश थी। मुझे इस बात की ख़ुशी थी कि कोई सुन सकता है मुझे। पर साथ ही साथ मैं इस बात को भी भली-भाँति जानती थी कि एक बूँद की ज़िंदगी आख़िर कितनी ही होती है। कभी भी कुचली जाऊँगी। या फिर भाप बन कर उड़ जाऊँगी। पर मैं इस बार भी हर बार की ही तरह कुचले जाना नहीं चाहती थी। और न ही भाप बनना चाहती थी। मैंने लेखक की तरफ़ देखा तो वो मुझे ही देख रहा था। मैंने उस से विनती की कि मुझे और जीना है। लेखक बेचारा, वो ठहरा इंसान। कोई भगवान थोड़े ही है। अजी जिसे अपनी ज़िंदगी का पता न हो कब खेला हो जाएगा, वो भला एक अधरंगी बूँद की ज़िंदगी क्या बचाएगा। लेखक कुछ सोच में पड़ गया था। अचानक लेखक ने अपनी जेब में पड़ा पेन निकाला। वो पेन एक फाउंटेन पेन था। लेखक मेरे नज़दीक आया, ज़मीन पर बैठा, अपना पेन खोला और मुझे अपनी कलम में खींच लिया। अगले ही पल मैं अधरंगी बूँद स्याही बन गई थी। इस लेखक ने मेरा भाग्य लिख दिया था। किसी पन्ने पर शब्द बनकर अमर हो जाना। ये उसी स्याही का असर है जो आप पढ़ रहे हैं । मेरी जीवनी लिखते हुए लेखक अधखुली नींद में है, वो कुछ नहीं लिख रहा, सब मैं ही लिख रही हूँ। जो इंसान किसी बूँद को स्याही बनाने का दम रखता हो तो वो इंसान उस बूँद की वफ़ा का भी हक़दार है। बस इसीलिए मैंने शुरुआत नमस्ते से की थी।
लेखक अब पूरी तरह से नींद में जाने वाला है। मैं भी अब यहीं रुकती हूँ। अगली बार फिर ऐसे ही किसी मंच पर मिलूँगी, पर ज़रूरी नहीं तब नमस्ते ही कहूँ, तब मैं सत श्री अकाल जी, अस्सलामु अलैकुम या गुड इवनिंग भी बोल सकती हूँ।
तब तक के लिए राम राम जी!
"अधरंगी बूँद"
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