सब झूठ सब फ़रेब - कविता - सोलंकी दिव्या

सब झूठ सब फ़रेब - कविता - सोलंकी दिव्या | Hindi Kavita - Sab Jhooth Sab Fareb
सब झूठ सब फ़रेब,
जहाँ देखा था कल घर वहाँ आज देखा तो, सब रेत-रेत।

लुटाना वो सारी ख़ुशीया घर-परिवार पर चाहता था,
मगर देखा तो उसका खाली था जेब।
सब झूठ सब फ़रेब...

ये तो सरसर नाइंसाफ़ी हैं, उसे अभी भी कई ज़िम्मेदारी निभानी बाक़ी हैं,
जिसने भरे थे घर के बाक़ी तीनों के,
देखा तो उसका खाली था पेट।
सब झूठ सब फ़रेब...
 
वो हर पहर आता जाता हैं 
कभी समझता हैं कभी समझाता हैं,
फिर भी न जाने रह जाता हैं कैसा भेद।
सब झूठ सब फ़रेब...

हर दुख से वो गुज़रा हैं,
हर ख़ुशी की क़ीमतें उसे चुकानी हैं,,
उसने गीन रखी हैं सबकी ज़रूरतें हर एक।
सब झूठ सब फ़रेब...

हर गली वो घूमा, हर शहर उसने देखा हैं,
पीने ही वाला था, वो ज़हर भी उसने फेंका हैं,
वजह की आ गया था याद उसे की निभाने हैं अभी फ़र्ज़ अनेक।
सब झूठ सब फ़रेब...

बहुत ढूँढ़ा उसने रस्ता,  बहुत उसने प्रयास किया...
एक दिन आया फिर संघर्ष काम, काम आने लगे उसे अपने सारे ऐब।
सब झूठ सब फ़रेब,
जहाँ देखा था कल घर वहाँ आज देखा तो, सब रेत-रेत।

सोलंकी दिव्या - अहमदाबाद (गुजरात)

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