मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)
चलो पथिक - कविता - मयंक द्विवेदी
शनिवार, मई 18, 2024
सुगम पथ की राहों पर
चलना भी क्या चलना है
राह सीधी तो सबने देखी
जाँची परखी अपनी मानी
कहो दुर्गम अनजानी राहों के
मंजर का क्या कहना है!
चलो पथिक उन राहों पर
जहाँ अंगारों का जलना है।
कभी शूल मिले कभी धूल सने
पग पग बाधाओं का पलना है
डगर-डगर पर साहस भरना
स्वयं कसौटी पर कसना है
चलो पथिक उन राहों पर
जहाँ अंगारों का जलना है।
चाहे धूप मिले, ना छाँव मिले
लहू से लथपथ पाँव मिले
स्वागत करना उन राहों का
चाहे इन राहो में मरना खपना है
चलो पथिक उन राहों पर
जहाँ अंगारों का जलना है।
उपहास मिले, उल्लास मिले
उन छलियों से ना छलना है
क़दम बढ़े है अब जब तो
अब ना रुकना थकना है
जीवन गुज़रा जिन सपनों में
उन सपनों से अब मिलना है
चलो पथिक उन राहों पर
जहाँ अंगारों का जलना है।
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