बाग़ में कोई कली चटके मगर तुमको न भाए - नज़्म - रोहित सैनी

बाग़ में कोई कली चटके मगर तुमको न भाए - नज़्म - रोहित सैनी | Nazm - Baag Mein Koi Kali Chatake Magar Tumko Na Bhaaye
अरकान : फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
तक़ती : 2122  2122  2122  2122

बाग़ में कोई कली चटके मगर तुमको न भाए,
रंग सब बेरंग ठहरे, रंग सारे धूल जाए।
फड़फड़ाना पंख तितली का लगे जब शोर तुमको,
हर कोई अपना लगे जब और, कोई  और  तुमको।
बारिशें हो और बदन सूखा रहे, पर रूह भीगे,
आँख बरसे और आँचल बूंद भर पानी को तरसे।
याद मरना भूल जाए, साँस चलना भूल जाए,
दिन निकलना भूल जाए, रात ढलना भूल जाए।
भूलने की कोशिशें नाकाम ठहरे एक-इक जब,
ज़िंदगी तुम लौट आना, लौट आना ज़िंदगी तब।
मैं! तुम्हारी राह में तुमको मिलूँगा, उस जगह पर,
मौसमों की कुछ ख़बर भी ना पहुँचती जिस जगह पर।
एक-पागलपन, ख़ुमारी, सोगवारी, इस बिमारी,
दिल-फ़िगारी, नागवारी, ख़ाकसारी, इंतिज़ारी।
मौसम-ए-दिल, याद से,  हालात से लड़ता हुआ मैं,
अपनी क़िस्मत से झगड़ता, रात से लड़ता हुआ मैं।


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