बिन तेल की बाती - कविता - मयंक द्विवेदी

बिन तेल की बाती - कविता - मयंक द्विवेदी | Hindi Prerak Kavita - Bin Tel Ki Baati - Mayank Dwivedi
देख बिन तेल की बाती को
रजनी के अंधेरे भाग रहे
देख धधकती ज्वाला में
अपने सूत के अंग-अंग को 
आनंद की इस अनुभूति में
प्राणों की थाती देकर
क्या ख़ूब उजाले बाँट रहे।

देख दीपो की इस आहुति को
शलभ हुए है नतमस्तक
अपने तन की समीधा से
तम को जैसे पाट रहे।

थी घोर अंधियारी यामिनी
देख दम-दम दीये की दामिनी 
प्रचण्ड अग्निशिखा की भामिनी 
तिमिर  थर-थर थर-थर काँप रहे।

देख तेल नहीं तो बाती ही
एक हौसले ही है काफ़ी
ले देख रजनी की अंधियारी
जब तक क़तरा-क़तरा है बाक़ी
उजियारे अंधियारे को दे मात रहे।


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