नवल भोर संग धवल कुहासा
शिशिर ओढ़ जब आई,
वसुंधरा से शैल शिखर तक
मेघावली सी छाई।
शिशिर सुंदरी रूप मनोहर
देख देह सकुचाई,
शीत वायु के प्रबल प्रताप से
नयन लेत अँगड़ाई॥
घने कुहासे में छिपकर
एक कला मुग्धता आई,
जिसके दर्शन चिंतन से
प्रकृति हुई वरदाई।
दीप्तियुक्त मुखमंडल सुंदर
केश छटा बिखराई
जिसके मौन स्वरों को सुनकर,
हृदय हुआ सुखदाई॥
यद्धपि जीवन सकल कुहासा
अद्भुत यह घड़ी आई,
आज कुहासा कितना मधुमय
कितना यह शुभदाई।
शीत प्रचंड अति सुखमय लागे
सकल कामना पाई,
देख शिशिर की नव मधु क्रीड़ा
गए बसन्त सकुचाई॥
सृष्टि का सौन्दर्य सँजोए
शिशिर सुंदरी आई,
कुहासे का ओढ़ के घूँघट
दिव्य कला हर्षाई।
हुआ पंत ह्रदय अति प्रमुदित
प्रणय-बयार सी छाई,
मानो जैसे वर्षों खोई
वस्तु हो कोई पाई॥
सतीश पंत - दिल्ली