ख़ुदगर्ज़ी के आलम में,
सारे रिश्ते बिखर गए।
धन दौलत के झूठे क़िस्से,
वो जाने किधर गए।।
प्यार की दौलत ही सच थी,
एक दुनिया में मगर।
आदमी ने क्या कहा,
यह सोच कर निखर गए।।
वक़्त की नज़ाकत ही ऐसी है,
किसे क्या कहें।
ठोकरें खाई जिसने,
सच कहूँ वो ही सुधर गए।।
इस चमन का बागवान,
अब थका चला शायद।
हर शाख सूखी सूखी सी,
और पत्ते बिखर गए।।
नरेगा की मज़दूरी कर,
जो पेट भरते परिवार का।
वो परिवार भी दो जून की,
रोटी को तरस गए।।
डॉ॰ राजेश पुरोहित - भवानीमंडी, झालावाड़ (राजस्थान)