दीप - कविता - इन्द्र प्रसाद

दीप - कविता - इन्द्र प्रसाद | Diwali Kavita - Deep - Indra Prasad. Hindi Poem On Diwali. दीप पर कविता
दीप से दीप तुम भी जलाते रहो,
दीप से दीप हम भी जलाते रहें।
मन में अँधेरे जो ढेर सारा भरा,
तुम भगाते रहो हम भगाते रहें॥

है तमस का असर, छा रहा बन क़हर,
विश्व में हर जगह क्या नगर क्या डगर।
सूर्य ना बन सकें जुगनुओं-सा सही,
आस की इक किरण तो जगाते रहें॥

छल कपट दंभ की चल रही है हवा,
हर हृदय द्वेष ईर्ष्या का जलता तवा।
लोभ की जो अगन फैलती जा रही,
प्रेम जल से उसे हम बुझाते रहें॥

पाप भी है यहीं पुण्य भी है यहीं,
है बुराई यहीं औ' भलाई यहीं।
हम विचारें कि क्या हो हमारा चयन,
हम लुटाएँ वही और पाते रहें॥

प्रेम के ढाई अक्षर को आओ पढ़ें,
बस यही मंत्र लेकर के आगे बढ़ें।
धन्य जीवन स्वतः यूँ ही हो जाएगा,
प्रेम के दीप यदि हम जलाते रहें॥

इंद्र प्रसाद - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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