जीवन की पुस्तक में देखा,
चंद पंक्तियाँ लिखी गई हैं।
पर बड़ी सार्थक वे सारी हैं,
बमुश्किल दो ही पढ़ी गईं हैं॥
कर्मों का लेखा था गूढ़ किन्तु,
परिणाम सहज व सरल पाया।
आक्षेप लिखे थे कुछ छोटे-छोटे
पढ़ चौंके, मन ये तरल पाया॥
पढ़ते हुए मैं भी ठिठक गया,
जब काल शब्द पर नज़र पड़ी।
मेरा मन विस्मय से सहम उठा,
जब सूक्ष्म दृष्टि इसी पे गड़ी॥
जीवन अनुभव खट्टा-मीठा है,
कभी धूप खिली कभी छाया है।
सुख-दुख की फीकी बारिश ने,
तन-मन भी ख़ूब भिगोया है॥
मृगतृष्णा में ये मन रमा हुआ है,
औ' भौतिकता ने गले लगाया है।
क्रूर काल सब छीनेगा एक दिन,
फिर क्यों मन को भरमाया है॥
राजेश 'राज' - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)