राष्ट्र को आशाएँ हैं मुझसे,
खरा उन पर उतरना है मुझे।
ढाँचा जो हो चुका है जर्जर,
धीरे-धीरे कुतरना है मुझे।
मुझे करना है निर्माण सभ्य समाज का,
नव पौधों को संंस्कारों से सींच कर।
करनी है दूर सारी दानवता,
विकारों की पकड़ से खींच कर।
मैं उलहाना नहीं दे सकता,
समाज के विकारों को लेकर।
बदलना है सारा ढाँचा मुझे ही,
अपना सौ प्रतिशत देकर।
समाज में गर बुरा घटित होता है,
तो यह मुझसे ही रही कमी है।
मेरी ही त्रुटि के कारण शायद,
धूल आईने पे आज जमी है।
चली है बयार जो आजकल,
इसमे भी कुछ दोष मेरा है।
तभी तो छुपा है सूरज,
और छाया घोर अँधेरा है।
गर करूँ मैं कर्म अपना ही,
अधर्म फिर टिक नहीं सकता।
कितनी भी ऊँची हो दुकान,
सत्य फिर, बिक नहीं सकता।
यह सच है, मैं ही समाज हूँ,
और इसे मुझे ही बनाना है।
थोप दूँ आरोप औरों पर,
यह तो एक बहाना है।
मुझे सजग होना ही होगा,
अपने कर्त्वयों को लेकर।
बचानी ही होगी मानवता,
अपना सौ प्रतिशत देकर।
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)