अरकान : फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
तक़ती : 2122 2122 2122 212
झाँक कर दिल में कभी मैं देखूँ जब भी आरज़ू,
पा ही जाता हूँ हमेशा एक अधूरी आरज़ू।
रात के सन्नाटों में जब हल्की सी आवाज़ हो,
ज़हन की गलियों से तब फिर गुज़रे कोई आरज़ू।
आज तक दिल में दबा कर मैंने रक्खी थी सभी,
पर किसी पर भी कभी थोपी न अपनी आरज़ू।
धूप बारिश सर्दियों में लोग फिरते दर-ब-दर,
तब कहीं जाकर है होती कुछ की पूरी आरज़ू।
अब सुख़न को रास भी आ जाऊँ ये चाहे 'कमल',
काश एक दिन हो कभी मेरी ये पूरी आरज़ू।
कमल पुरोहित 'अपरिचित' - कोलकाता (पश्चिम बंगाल)