धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो? - कविता - अनूप अंबर

धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो? - कविता - अनूप अंबर | Dhritarashtra Kavita - Dhritarashtra Aaj Kyoon Rote Ho. Hindi Poem On Dhritarashtra. धृतराष्ट्र पर कविता
धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो?
वैसी फ़सल काटोगे जैसे बीज तुम बोते हो।

कितना समझाया वासुदेव ने,
पर तुमको समझ न आया था।
उस भरी सभा में दुर्योधन ने,
द्रोपदी का चीर खिंचवाया था।
तुम उस दिन न कुछ बोल सके,
मोह का तिलस्म न तोड़ सके।
फिर वही हुआ जो होना था,
अब क्यूँ अपने नैन भिगोते हो॥

धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो?

कुंठाएँ कभी फलित नहीं होती,
सदा स्वयं को हानि पहुँचाती है।
दूजे का हक़ खाने वाले को,
कभी शांति नहीं मिल पाती है।
शकुनी को घर में पाला तुमने,
उचित अनुचित न जाना तुमने।
भीष्म द्रोण विद्वान बड़े थे,
पर कभी कहना न माना तुमने।
अब जाकर के शर शैय्या के समीप,
कह हाय! तात-तात क्यूँ रोते हो॥

धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो?

ज़रा गांधारी के दिल से पूछो,
कैसे सौ शिशुओं को पाला था।
अपने तन का छीर पिला के,
तन को साँचे में ढाला था।
निज आँचल की छाँव देकर,
कौरव शिशुओं को सम्हाला था।
अब उनके शव को देख-देख के,
क्यूँ धीरज आज तुम खोते हो।

धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो?

अभिमान जन्म से नहीं मिला,
ये तुमने उसको सिखलाया था।
जिसके बल पे सुयोधन फिर,
दुर्योधन जग में कहलाया था।
पाँच गाँव माँगें पाण्डव ने,
वो भी तुमसे दिए न गए।
सत्ता के मद में न्याय भी,
हे राजन! तुमसे किए न गए।
अब महाभारत पूर्ण हो चुका है,
धर्मराज का तिलक हो चुका है।
अब मन में पश्चाताप लिए,
क्यूँ भार ह्रदय पे ढोते हो॥

धृतराष्ट्र आज क्यूँ रोते हो? 
वैसी फ़सल काटोगे जैसे बीज तुम बोते हो॥

अनूप अम्बर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)

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