बेटी - कविता - रमेश चन्द्र यादव

होते संचित पुण्य मानव के,
घर मे तब आती है बेटी।
बहन भार्या और माता, जाने,
कितने रूप निभाती है बेटी।
परिवार रहे ख़ुशहाल सदा,
वृत और त्यौहार मनाती है बेटी।
कभी तृण की बस ओट लिए,
सतीत्व का रूप दिखाती है बेटी।
पुत्र को पीठ से बाँध कभी,
दो-दो तलवार चलाती है बेटी।
जल में, थल में,और नभ में,
शौर्य अपना दिखलाती है बेटी।
कल्पना चावला बन के कभी,
अन्तरिक्ष में भी जाती है बेटी।
पुत्र कभी कोई साथ ना दे, तब
अपना फ़र्ज़ निभाती है बेटी।
बनके बुढ़ापे की लाठी कभी,
पिता का मान बढ़ाती है बेटी।
शासन कौशल में अद्वित्य,
प्रशासन ख़ूब चलाती है बेटी।
सारी सृष्टि की हेतु यही,
दो परिवारो की सेतु है बेटी।
जब तक रहे मायका महकाए,
फिर ससुराल चमकाती है बेटी।
संस्कार लिए शुभ निज हिय में,
घर को आदर्श बनाती है बेटी।
यमराज खड़े सम्मुख फिर भी,
पति को लौटा ही लेती है बेटी।
सुख समृद्धि का वरदान लिए,
पिता ससुर को राज दिलाती है बेटी।
बेटे है कुल के रक्षक गर तो,
घर को कुलिन बनाती है बेटी।
सृजन है श्रेष्ठ सृष्टि का ये,
ईश्वर का वरदान है बेटी।
ना गर्व करो बस बेटों पर तुम,
बेटों से कहीं महान है बेटी।

रमेश चन्द्र यादव - चान्दपुर, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)

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