परम्परागत और वैज्ञानिक कृषि जल संकट और जीवनशैली - लेख - श्याम नन्दन पाण्डेय

भारत ही नहीं अपितु पूरी दुनिया में बढ़ती हुई जनसंख्या और और कृषि योग्य भूमि की कमी से खाद्य संकट संभावना बढ़ रही है और इसकी आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, ज़हरीले कीटनाशकों का उपयोग पारिस्थितिकी तंत्र (Ecology System - प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति ख़राब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है। 
आज की खाद्य पैदावार और ज़रूरतों तथा वर्ष 2050 में खाद्य ज़रूरत और पैदावार में 50 प्रतिशत का अंतर है यानी वर्ष 2050 तक हमें अभी उत्पादित खाद्य उत्पादों को लगभग डेढ़ गुणा बढ़ाना पड़ेगा पहले से कम ज़मीन और संशोधनो का प्रयोग कर तभी खाद्य पदार्थों की आपूर्ति हो पाएगी। 
आने वाले वर्षों में अधिक अनाज और उत्पदान के लिए अधिक ज़मीन की आवश्यकता होगी जिससे जंगलो, मरुस्थलों और पहाड़ों को खेती योग्य बनाना पड़ेगा जिससे हमारा प्राकृतिक इकोसिस्टम प्रभावित होगा या बिल्कुल समाप्त हो जाएगा। 
हमारे वैज्ञानिक जलवायु अनुकूल सुपर (फूड-खाद्य) फ़सलें  उगाने पर शोध कर रहे हैं जिसमे कम से कम संसाधनों से अधिक से अधिक पैदावार ली जा सके।

किसी भी बीज के अंकुरण के लिए 4 चीज़ों की आवश्यकता होती है, जल, वायु, नमी (आद्रता) और तापमान मिट्टी के बिना भी बीज से बीज तक का सफ़र तय कर सकते हैं। 
हीड्रोपोनिक्स, एक्वापोनिक्स और ऐरोपोनिक्स कृषि पद्धति को बढ़ावा देना चाहिए और वर्टिकल फार्मिंग पद्धतियों को बढ़ावा देना चाहिए जिससे कम से कम संसाधनों का प्रयोग कर पर्यावरण को छति पहुँचाए बिना उत्पादन को बढ़ाया जा सके
पी आई बी (प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया) के अनुसार हाइड्रोपोनिक्स, ऐरोपोनिस्क्स और एक्वापोनिक्स तीनों कृषि तकनीक में मृदा के बिना पौधों को उगाया जाता है, इसमें मृदा के स्थान पर जल और जल वाष्प (कोहरा) का उपयोग किया जाता है। 

हाइड्रोपोनिक्स: 
हाइड्रोपोनिक्स खेती का एक वर्तमान तरीक़ा है। इसमें खनिज, उर्वरक आदि को पानी में मिलाकर मिट्टी के बिना पौधों की खेती की जाती है. इस प्रक्रिया में पौधे की जड़ें हमेशा पानी में रहती हैं और इस पौष्टिक तरल के संपर्क के ज़रिए अपने खाने का निर्माण करती हैं। हाइड्रोपोनिक तकनीक में उपयोग किए जाने वाले पोषक तत्व जैसे की मछली का मलमूत्र, बत्तख की खाद, रासायनिक उर्वरक और वर्मी कम्पोस्ट आदि शामिल रहते हैं।

एयरोपोनिक्स: 
एयरोपोनिक्स खेती का एक वर्तमान तरीक़ा है, जिसमें पौधों को कोहरे और हवा के वातावरण के अनुरूप उगाया जाता है। इसमें पौधौं को उगाने के लिए पानी, मिट्टी और सूर्य के प्रकाश की आवश्कता बिल्कुल ही नहीं होती है। इस तकनीकी में छोटे-छोटे पौधों को बॉक्स में रखकर लटका दिया जाता हैं और फिर हर एक बॉक्स में पौधौं में पोषक तत्व, खाद और पानी डाल दिया जाता है, जिससे इनकी जड़ों में नमी बरक़रार रहे।

एक्वापोनिक्स: 
एक्वापोनिक्स एक उभरती हुई तकनीक है जिसमें मत्स्यन के साथ-साथ पौधों को भी एकीकृत तरीक़े से उगाया जाता है। 
मछलियों द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट का उपयोग पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक उर्वरक के रूप में किया जाता है। 
पौधे जहाँ एक तरफ़ आवश्यक पोषक तत्त्वों को अवशोषित करने का कार्य करते हैं, वहीं दूसरी और जल को फिल्टर (निस्पंदन) करने का कार्य भी करते हैं। इस निस्पंदन किए गए जल का उपयोग मत्स्य टैंक को फिर से भरने के लिए किया जाता है। 
शुष्क क्षेत्र (जहाँ जल की कमी रहती है) के लिए एक्वापोनिक एक उपयुक्त खाद्य उत्पादन तकनीक है, इस तकनीक में जल का पुन: उपयोग करके खाद्य उत्पादन किया जाता है।

वर्टिकल फार्मिंग: 
वर्टिकल फार्मिंग की आधुनिक अवधारणा को पहली बार वर्ष 1999 में प्रोफेसर डिक्सन डेस्पोमियर द्वारा प्रस्तावित किया गया था। उनकी अवधारणा इस विचार पर केंद्रित थी कि शहरी क्षेत्रों को अपना भोजन ख़ुद उगाना चाहिए जिससे परिवहन के लिए आवश्यक समय और संसाधनों की बचत हो सके। हीड्रोपोनिक्स, ऐरोपोनिस्क्स और एक्वापोनिक्स वर्टिकल फार्मिंग के उदाहरण हैं। 

हालाँकि वर्तमान समय में इस तकनीक का इस्तेमाल केवल छोटे पौधों की खेती के लिए ही किया जाता है। हाइड्रोपोनिक तकनीक से उगाए जाने वाले पौधे मुख्यत: टमाटर, मिर्च, खीरे, स्ट्रॉबेरी, बैंगन, शिमला मिर्च, मटर, मिर्च, स्ट्रॉबेरी, ब्लैकबेरी, ब्लूबेरी, तरबूज, खरबूजा, अनानस, अजवाइन, तुलसी, गाजर, शलजम, ककड़ी, मूली, आलू आदि तरह के पौधे शामिल हैं,
पर इनके प्रति जागरूकता और सब्सिडी के माध्यम से और बड़े और सस्ते स्तर पर भी किया जाना चाहिए।

पिछले साल लगभग पूरा विश्व सूखे से प्रभावित रहा और कई जगह भीषण बाढ़ आई। 
वर्ष 2000 के बाद से दुनिया भर में सूखे की संख्या और अवधि में ख़तरनाक 29% की वृद्धि हुई है।
एक पूरी नई पीढ़ी 'पानी की कमी' में बड़ी हो रही है। 
अकेले जलवायु परिवर्तन के कारण अगले कुछ दशकों में 129 देशों में सूखे के जोखिम में वृद्धि का अनुभव होगा और कई हिस्सों में प्रलयकारी बाढ़ की सम्भावना है। 
धरती का एक हिस्सा सूखाग्रस्त रहता तो दूसरे हिस्से में बाढ़ आती रहती है। 
19वीं शताब्दी में काम कर रहे ग्रेगोर योहान मेंडल वैज्ञानिक रूप से आनुवंशिकी का अध्ययन करने वाले पहले व्यक्ति थे। आधुनिक आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) के जनक के रूप में ग्रेगोर मेंडल ने 'गुण वंशानुक्रम' का अध्ययन किया, कि जीवों में कैसे एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में गुणों और लक्षणों का स्थानांतरण होता है। 
प्रत्येक सामान्य मानव कोशिका (सेल) में 23 जोड़े गुणसूत्र होते हैं। जीन गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स) में निहित होते हैं, जो कोशिका के केंद्रक में होते हैं। एक गुणसूत्र में सैकड़ों से हज़ारों जीन होते हैं। 
प्रोटीन शरीर में सामग्री का सबसे महत्वपूर्ण वर्ग है। प्रोटीन केवल माँसपेशियों, संयोजी ऊतकों, त्वचा और अन्य संरचनाओं के लिए ब्लॉक नहीं बना रहे हैं बल्कि एंजाइम बनाने के लिए भी इनकी ज़रूरत होती है। एंजाइम जटिल प्रोटीन होते हैं जो शरीर के भीतर लगभग सभी रासायनिक प्रक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित और संचालित करते हैं। शरीर हज़ारों विभिन्न एंजाइमों का उत्पादन करता है। इस प्रकार, शरीर की संपूर्ण संरचना और कार्य शरीर द्वारा संश्लेषित प्रोटीन के प्रकार और मात्रा द्वारा नियंत्रित होते हैं। प्रोटीन संश्लेषण जीन द्वारा नियंत्रित होता है, जो गुणसूत्रों पर निहित होते हैं। 
इसी प्रकार ज्ञात जीवों (पौधे, फ़सलें और फंफूद) और कई विषाणुओं की भी आंतरिक संरचना इन्ही न्यूक्लियस, जीन्स और क्रोमोसोम्स से होती है। 

जेनेटिक इंजीनियरिंग ने कृषि के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण शोध किए हैं और यह हरित क्रांति के प्रमुख कारकों में से एक था। 
क्रोस ब्रीडिंग से लेकर हाईब्रिडायजेशन और अब GMO व जीनोम एडिटिंग जनेटिक इंजीनियरिंग ने बहुत तरक़्क़ी कर ली। 
विश्व की 3 सबसे बडी फ़सलें (अनाज) जिनका सबसे अधिक उत्पादन और खपत है वो हैं धान, गेहूँ और मक्का क्रमशः चीन भारत और अमेरिका इनका सबसे अधिक उत्पादन करता है। 
ज़्यादातर खाद्य पदार्थ और इन्हीं तीनो अनाजों से बनते हैं। 
जिमसें मक्का की सर्वाधिक जीएमओ किस्मे विकसित की जा चुकी हैं भारत मे भी BT कपास (बैसीलस थ्युरिंजिएंसिस जीवाणु की आविष प्रोटीन का संश्लेषण करने वाली जीन को जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा निवेशित करके इसकी कीट प्रतिरोधी किस्म विकसित की गई है) में ही GMO की अनुमति है। अन्य फ़सलों की GMO किस्मों का शोध और उपयोग अभी विचाराधीन है। 

जीनोम एडीटिंग और जीएमओ (जेनेटिकली मोडिफाइड ऑर्गनिस्म) 
जीनोम एडिटिंग डीएनए में सटीक और लक्षित परिवर्तन करने की एक तकनीक है। कृषि के लिए, इसे खाद्य फ़सलों को जलवायु, रोग और कीट दबाव जैसे स्थानीय पर्यावरणीय दबावों के प्रति अधिक लचीला बनाने के लिए लागू किया जा सकता है। 
जीनोम एडिटिंग की कई तकनीक हैं जैसे TALEN, ZFN and CRISPR/Cas जिसमें CRISPR CAS9 - Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic RepeatsTechnique) सबसे प्रचलित और कारगर तकनीक है। 
जीनोम एडिटिंग में किसी भी फ़सल या कोशिका में प्रोटीन और एंजाइम की मदद से उनके जीन में फेरबदल किया जाता जैसे कुछ हिस्सों को हटा दिया जाता है या उसी जीन का कुछ हिस्सा जोड़ दिया जाता है या फिर किसी और जीव का जीन उसमे जोड़ दिया जाता है जिससे जीव व पौधों के गुणो में बदलाव किया जाता है। 

GMO (जनेटिक मोडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) से फ़सलों को खरपतवार, कीटों और विशिष्ट बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक बनाया जाता है साथ साथ अधिक उत्पादन भी लिया जा सकता है। धान जैसे ज़्यादा जल की आवश्यकता वाली फ़सलों को जीनोम एडिटिंग कर के कम पानी में उगने योग्य बनाकर उत्पादन भी बढ़ाया जा सकता है। 

अमेरिकन ऐजेंसी यू यस फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन इस पर नज़र रखती रखती है। एक स्टडी के अनुसार जीएमओ भोजन में डीएनए उस जानवर को स्थानांतरित नहीं होता है जो इसे खाता है। इसका मतलब यह है कि जीएमओ खाना खाने वाले जानवर जीएमओ में नहीं बदलते हैं। अर्थात गाय वह घास नहीं बन जाती जिसे वे खाती है। और मुर्गियाँ वह मकई नहीं बन जाती हैं जिसे वे खाती हैं।

इसी तरह, जीएमओ पशु भोजन से डीएनए इसे पशु से माँस, अंडे या दूध में नहीं जाता है। अनुसंधान से पता चलता है कि अंडे, डेयरी उत्पाद और माँस जैसे खाद्य पदार्थ जो जानवरों से आते हैं जो जीएमओ भोजन खाते हैं, वे जानवरों से बने खाद्य पदार्थों के पोषण मूल्य, सुरक्षा और गुणवत्ता में बराबर होते हैं जो केवल गैर-जीएमओ भोजन खाते हैं। 
जब आप "जीएमओ" शब्द सुनते हैं तो आप शायद भोजन और फ़सलों के बारे में सोचते हैं। हालाँकि, जीएमओ बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकें कुछ दवाएँ बनाने में भी महत्वपूर्ण हैं। वास्तव में, जेनेटिक इंजीनियरिंग, जो जीएमओ बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रिया है, का इस्तेमाल पहली बार मानव इंसुलिन बनाने के लिए किया गया था, जो मधुमेह के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा है।  जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विकसित दवाएँ गहन एफडीए अनुमोदन प्रक्रिया से गुज़रती हैं। मानव उपयोग के लिए स्वीकृत होने से पहले सभी दवाओं को सुरक्षित और प्रभावी साबित होना चाहिए। कपड़ा उद्योग में जीएमओ का भी उपयोग किया जाता है। कुछ जीएमओ कपास के पौधों का उपयोग कपास के रेशों को बनाने के लिए किया जाता है जिसका उपयोग कपड़ों और अन्य सामग्रियों के लिए कपड़े बनाने के लिए किया जाता है। 
इन सब फ़ायदों के बावजूद जीनोम एडिटिंग और जीएमओ  मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए जोखिम भरा है और विशेष रूप से उनके पर्यावरणीय प्रभाव के संबंध में काफ़ी अनिश्चितताएँ हैं।
प्रकृति के नियमों में हेरफेर करने से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने की संभावना बहुत है जिसका खामियाजा सम्पूर्ण मानव जाति को भुगतना पड़ सकता है।
जीएमओ को उचित नियंत्रण और उचित परीक्षण की आवश्यकता है।
प्रकृति एक अत्यंत जटिल परस्पर संबंधित शृंखला है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि आनुवांशिक रूप से संशोधित जीन का अज्ञात परिणामों के साथ अपरिवर्तनीय प्रभाव हो सकता है।

GMO हानिकारक आनुवंशिक प्रभाव पैदा कर सकता है और जीन एक प्रजाति से दूसरे में स्थानांतरित हो सकता है जो आनुवंशिक रूप से इंजीनियरिंग नहीं है।

यह देख गया है कि GMO फ़सल के पौधे लाभकारी जीन को जंगली आबादी के साथ पारित कर सकते हैं जो इस क्षेत्र में जैव विविधता को प्रभावित कर सकते हैं।
बार-बार जीनोम एडिटिंग और मोडिफिकेशन से फ़सलें अपना वास्तविक और प्राकृतिक रूप खो देंगी, शुरुआत में धान की फली जैसे दिखने वाला मक्का आज बिल्कुल अलग दिख रहा है।
वैज्ञानिक जैविक खेती और इसके सिद्धांतों का अंगीकरण भविष्य में आने वाले कृषि और खाद्य संकट से उबरने में महत्वपूर्ण प्रयास मानते हैं।
IFOAM के अनुसार जैविक खेती के चार मुख्य सिद्धांत हैं। निम्नलिखित सिद्धांत हैं जिन पर जैविक खेती आधारित है इन्हीं सिद्धान्तों का अनुसरण कर ही हम कृषि के भविष्य को ख़तरे से बचा सकते हैं साथ साथ पर्यावरण व इकोसिस्टम को भी सरंक्षित रख सकते हैं।

स्वास्थ्य का सिद्धांत: 
सिद्धांत स्वस्थ मिट्टी के महत्व पर जोर देता है। यदि मिट्टी स्वस्थ होगी तो वह स्वस्थ फ़सल पैदा करेगी जिससे स्वस्थ जानवर भी पैदा होंगे। यदि फ़सलें स्वस्थ होंगी तो उनका मानव स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और स्वस्थ फ़सल खाने से हमें भी स्वस्थ शरीर मिलेगा। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण बात स्वस्थ मिट्टी पर ध्यान देना है। हाल के दिनों में लोग खाद्य सुरक्षा के बारे में बहुत जागरूक हो रहे हैं क्योंकि अस्थमा, खाद्य एलर्जी और हृदय रोग जैसी कई बीमारियाँ अकार्बनिक खेती से जुड़ी हुई हैं। 

पारिस्थितिकी का सिद्धांत: 
इस सिद्धांत के अनुसार फ़सलों और पशुओं का उत्पादन उस भूमि पर आधारित होना चाहिए जो पोषक तत्वों से समृद्ध हो। इस सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य खेती के माध्यम से पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करना है।

निष्पक्षता का सिद्धांत: 
जैविक खेती निष्पक्षता की प्रबल समर्थक है। निष्पक्षता का अर्थ है इक्विटी, सम्मान, देखभाल और न्याय। यह सिद्धांत प्रत्येक स्तर पर और किसानों, प्रोसेसर, वितरकों, आपूर्तिकर्ताओं और उपभोक्ताओं जैसे सभी समूहों के संबंध निष्पक्षता पर जोर देता है।

देखभाल का सिद्धांत: 
यह जैविक खेती के सिद्धांत है। क्योंकि उपरोक्त सभी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भूमि और पूरे पर्यावरण की अच्छी देखभाल करना आवश्यक है। 
जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए फ़सल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। एसलिए यही टिकावू खेती का अनुसरण हमारे कृषि के भविष्य के लिए आवश्यक है।

जल संकट: 
पानी को लेकर ग्लोबल क्राइसेस पर संयुक्त राष्ट्र (UN) की एक रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादा खपत, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की वजह से अगले 7 सालों में पानी की डिमांड की तुलना में सप्लाई 40 प्रतिशत पानी की कमी हो जाएगी।

दुनिया की 10 प्रतिशत आबादी ऐसे इलाक़ों में रहती है जहाँ पानी की क़िल्लत है दुनिया मे हर 4 लोगों में से एक को पीने के लिए भी पानी नहीं मिलता।
शहरीकरण और औधिकीकरण की वजह से भी भूजल स्तर घट रहा है कंक्रीट के घर, सड़क और शहरों में अधिकांश ज़मीनी सतह पर कंक्रीट की चादर बनाई जा रही है इस वजह से धरती पानी को सोख नहीं पाती बारिश और अन्य अवशिष्ट पानी बर्बाद होता है।
हम सब फ्रीज, कूलर और ए सी के आदी हो रहे हैं जिससे बिजली की खपत बढ़ती है ज्यादातर बिजली थर्मल पावर प्लान्ट से बनाई जाती है जिसमे बहुत अधिक मात्रा में पानी का उपयोग होता है और प्रदूषण भी बढ़ता है।

हम जब भी पानी का प्रयोग करें, चाहे वो पीने के लिए हो, नहाने के लिए हो या फिर खेती में सिंचाई के लिए हमे ध्यान रखना चाहिए कि कहीं किसी को पीने के लिए भी पानी नहीं मिल रहा है हो सकते है कोई इलाक़ा सूखाग्रस्त हो।
पानी का अनावश्यक प्रयोग भविष्य में हमे धरती पर मौजूद पानी का 70-75 प्रतिशत प्रयोग खेती में सिंचाई के रूप में हो रहा है।
किस जगह पर किस तरह की फ़सलें उगानी चाहिए हमे इस बात का ध्यान रखते हुए तालमेल बिठा कर खेती करनी होगी।
स्प्रिंकलर और ड्रिप इरिगेशन सिंचाई सिस्टम का प्रयोग करना चाहिए।

जलवायु परिवर्तन के कारण अधिक बाढ़ आ रही है और सूखा भी पड़ रहा है।
प्रदूषण की वजह से उपलब्ध पानी भी इस्तेमाल लायक़ नहीं है।
बड़े-बड़े बाँधों की तुलना में छोटे-छोटे बाँध बनाने होंगे जिससे ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्र का जल संचय कर वाटर वेस्टेज को रोका जा सके।
प्रकृतिक संसाधनों का कम से कम प्रयोग कर विकास की ओर अग्रसर रहना होगा।
पानी का संकट से अलग-अलग समुदायों में मतभेद और असमानता फैलता है, जल पर हर समुदायों का समान अधिकार होना चाहिए। इकोलॉजिकल सिस्टम से छेड़छाड़ कम करना होगा, हर जीव के लिए हर जगह ज़रूरत के लिए जल रहे, हमें जल का ऐसा संरक्षण और प्रबंधन करना होगा।
नदिया, झरने और तालाबों और कुओं का सरंक्षण और इन्हें साफ़ सुथरा रखना होगा, जंगलों का संरक्षण और नए पौधे लगाने होंगे।
आधुनिकता और तकनीकी विकास का अर्थ ये बिल्कुल नहीं है कि अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन किया जाए और अपनी ज़िम्मेदारियों से बचा जाए बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का संचय और संरक्षण हमारे विकास समृद्धि का प्रतीक है।

श्याम नन्दन पाण्डेय - मनकापुर, गोंडा (उत्तर प्रदेश)

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