दिवा स्वप्न - कविता - प्रवीन 'पथिक'

एक; किसी पिंजरे में कैद पक्षी की तरह,
फड़फड़ाता है।
उसके निकलने के अपेक्षा,
मौत का आलिंगन प्यारा लगता है।
रात के सन्नाटे पर अंधेरा हॅंसता है।
उसकी बेचैनी और छटपटाहट को,
साफ़ देखा जा सकता है;
जंगल के अंधेरी गुफा में।
रहस्यमय दानव आकृति के रूप में,
कानों को चीरती हुई आवाज़ सुनाई देती है। 
उदासी; पुराने खंडहर से निकलकर,
किसी कापालिक की कोठरी की ताख़ पर;
जा बैठती है।
जहाॅं चिंतित अंधेरा ईर्ष्यालु पंख फैलाता है।
और मध्यरात्रि को झींगुर गाता है।
शमशान से लौटती हुई शव यात्रा,
तुम्हारे वास्तविक रूप का सृजन करते हैं।
निष्क्रिय मस्तिष्क में विचारों की गर्जना;
गर्म कड़ाही में उबलते शब्द;
और कुंठित मन
जीवन गति को शून्य कर देती।
और मृत्यु; 
मृत्यु तो तांडव नृत्य करती हुई,
कोमल भावनाओं को पाषाण बना देती है।
एक मधुर संगीत बजता है।
स्मृतियों का कम्पन,
तेज़ होते हुए विश्राम ले लेती हैं।
और भय मिश्रित चीख़ें;
तथा वीभत्स का नंगा खेल;
निरंतर जारी रहता है।


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