ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे - कविता - नविन कुमार

मन की व्यथा ने मेरी मति को समझा,
समझा उसने मुझे समझाया,
डगमग-डगमग पाँव मेरे,
इन पग पर अपना पग है बनाया।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।
वक़्त-वक़्त पर टूट-टूट कर,
रोते रहा आँसुओं में डूब-डूब कर,
ना मैं सो पाया ना मै रो पाया,
अब पत्थर सा अहसास है मुझ में आया।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।
खींच ले तू रक्त मेरे सारे,
मृत्यु ही है मुझे प्यारे,
हिम्मत की घड़ी में ये है मेरे इशारे,
पीड़ा की घड़ी ही है अब मुझे प्यारे।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।
तोड ज़ंजीरे उड़ने आया हूँ मैं,
रास्ते स्वयं बुनने आया हूँ मैं,
क़ैद अब तू न मुझे कर पाओगे,
इस समंदर में स्वयं ही बिखर जाओगे।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।
इरादे अगर तोड़े जाते,
मन अगर क़ैद हो पाते,
अनंत ब्रह्मांड अगर बिखर पाते,
फिर भी न तू मुझे क़ैद कर पाते।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।
अनंत घड़ी से संभल कर आया हूँ मैं,
स्वरूप ख़ुद ही संग गढ़ लाया हूँ मैं,
अब ये इरादे क़ैद न हो पाएँगे,
सारी व्यथा, सारी पीड़ा अब स्वयं ही भस्म हो जाएँगे।
अब फिर न तू साध इसे,
ज़ंजीरों में फिर ना तू बाँध मुझे।

नविन कुमार - बेगूसराय (बिहार)

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