एक आवाज़ दो - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव

प्रेम की बाँसुरी होठों से चूम लो,
फूँक दो एक स्वर राग भर जाएँगे,
बिन तुम्हारे रहे हम अधूरे सदा,
एक आवाज़ दो पार कर जाएँगे।

बीच में अगिनत अँधेरे रहे,
ख़्वाब टूटे हुए राह घेरे रहे,
लाख चाहा अधर पर हँसी हो,
मगर मन में ग़मों के ही बसेरे रहे,
हर्फ़-दर-हर्फ़ बिखरे हुए हैं सभी,
एक आवाज़ दो हम सँवर जाएँगे।

बिन तुम्हारे रहे हम अधूरे सदा,
एक आवाज़ दो पार कर जाएँगे।

यदि गगन तुम बनो मैं सितारा बनूँ,
यदि नदी तुम बनो मैं किनारा बनूूँ,
बस यही माँगता हूँ ख़ुदा से सदा,
तुम हमारी बनो मैं तुम्हारा बनूँ,
राह शोलों से भरी हो भले ही मगर,
एक आवाज़ दो हम गुज़र जाएँगे।

तार झंकृत करो लय मधुर साज दो,
प्रेम विकसित करो उसे आग़ाज़ दो,
युगों-युगों से प्रतिक्षित है ये चाहना,
पूर्ण हो एक अवसर उसे आज दो,
लाख बंदिश लगाए ज़माना मगर,
एक आवाज़ दो पार कर जाएँगे।

बिन तुम्हारे रहे हम अधूरे सदा,
एक आवाज़ दो हम सँवर जाएँगे।

चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव - प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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