जीवन यही है - कविता - सुनील कुमार महला

जब वो ज़िंदा थी,
तो घर आँगन महकता था उसकी बातों से
बहता था झरना
घुलता था शहद
आबोहवा में 
अब उसका सिंहासन छिन गया है
दूर जा बैठी है कहीं
अंतरिक्ष के किसी कोने में वह
क्योंकि
कैलेंडर ने बदल दिए हैं पन्ने
अब कर्फ़्यूग्रस्त हो गया है वो घर
दुबकी हैं बातें सारी
अब तो बस बोलतीं हैं दीवारें
कभी कान लगाकर तुम सुनना
निढाल पड़ी दीवारों में
जैसे लौट आएगी चेतना
भले ही आज वो चाय का गरमागरम प्याला लेकर नहीं आती
लेकिन
ख़ुशबू आज भी सर्वत्र फैली हुई है
उसके हाथों में जैसे था जादू कोई
खंडहर की ध्वस्त खिड़कियों में
नज़र आता है वो चाय का प्याला
जुलाई की इस बारिश में
तपती धरती से जब निकलती हैं सुलगती हुई लपटें
लगता है कि
वह आ गई है हमारे बीच
मैंने महसूस किया है कि वह कह रही है
दो घूँट गरमागरम चाय के उतार ले
हलक के नीचे
जीवन यूँ ही चलता रहा है, चलता रहेगा
ग़म न कर
मातम न मना
आँसुओं को यूँ व्यर्थ न बहा
कभी धूप है, कभी छाँव है
ये सृष्टि चक्र है
बारिश का आनंद ले
ग़मों को घोलकर पी जा
ख़ुद भी जीना सीख और दूसरों को भी जीना सिखा
कभी धूप को तो कभी छाँव को सिरहाने रख
नया सागर ढूँढ़
नई कश्तियाँ बना
बिखर मत, ढल मत
सूरज फिर निकलेगा ही और ये रात भी ढलेगी ही
जीवन यही है
जीवन यही है।

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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