रोते दोनों सारी रात - कविता - राहुल भारद्वाज

कैसे भूल सकूँगा मैं,
वह काली-काली अंधियारी रात।
बहा ले गई जो मेरा गुलशन,
कैसी थी वो काली रात॥
माँ का सर पर आँचल था,
महका करता आँचल था।
आँचल रुठा, सब कुछ छूटा,
सब कुछ छूटा, उस काली रात॥
शिशिर उठता है तन मन मेरा 
जब-जब आए याद, वो काली रात।
खड़ा अकेला वीराने में,
करता हूँ मैं, अब ख़ुद से बात॥
कितना सुंदर मंज़र था वो,
लोरी सुनता था, सारी रात।
मुझको सूखे में सुला सुलाकर,
गीले में सोती थी, सारी रात॥
कैसे भूल सकूँगा मैं,
वह काली-काली अंधियारी रात।
ख़ुशियाँ सारी लें गया बहाकर,
तूफ़ाँ आया था, जो उस रात॥
पल-पल सरक, रहा था आँचल,
मैं रोया था, सारी रात।
सो न सका मैं, आज तक
आँचल छूटा था जिस रात॥
आँखों से अब, जब बहते आँसू,
माँ आकर पूछें, सारी रात।
एक दूजे के पोंछे आँसू
रोते दोनों सारी रात॥

राहुल भारद्वाज - हापुड़ (उत्तर प्रदेश)

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