प्रकाशन - कविता - राजेश 'राज'

जाने क्या ढूँढ़ती हैं
तुम्हारी आँखें मुझमें
तुमसे पूछ्ना चाहता हूँ
पर नहीं सूझता कोई प्रश्न
जिससे देखें तुझमें
और ज्ञात हो जाए
जिज्ञासा तुम्हारी॥

तुम्हारे ओठों के कोरों पर
सुसज्जित हैं ढेरों लालसाएँ
जिनके समाधान हेतु
तुम प्रयासरत निरन्तर
अपनी थीसिस पूर्ण करने को
शायद कुछ संदर्भ 
खोजती हो मुझमें॥

मेरे जीवन के पन्ने
आहिस्ता-आहिस्ता पलट
संभावित संकेत
अपने हृदय के कैनवास पर
अपने दक्ष हाथों से
सहेज रही हो॥

निकट भविष्य में शोध
प्रकाशन का निर्णय
शायद कर रही हो
मेरी सहर्ष स्वीकृति है
कि तुम नवीन प्रयोग कर
अपना शोधकार्य पूर्ण करो
और प्रकाशित हो जाऊँ मैं॥

राजेश 'राज' - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)

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