बादल - कविता - उमेन्द्र निराला

हे बादल!
अब तो बरसो
भू-गर्भ में सुप्त अंकुर
क्षीण अनाशक्त,
दैन्य-जड़ित अपलक नत-नयन
चेतन मन है, शांत।
नीर प्लावन ला एक बार
देख प्रकोप ह्रदय थामेगा संसार,
तेरी हुंकार से ऊषा होगा
क्षत-विक्षत अंकुर का उद्धार।
गिरी का गौरव है, ऊँचा
दिखा तड़ित आघात-आक्रोश,
नत-मस्तक होगा सिर उसका
शक्ति-प्रभाव से फूट अंकुर वृक्ष होगा।
आतंक भवन ढहाने को
लाओ उनमें नया उन्माद,
अर्ध-क्षुधित, निरस्त्र, शोषित- जन
शक्ति का रस भार।
ताप-ऊमस की भीषणता  का प्रतिकार
तुझे बुलाता सहमा श्रमिक,
प्लावन को उत्तेजित कर
नव-जीवन का हो ख़ुशहाल।

उमेन्द्र निराला - हिंनौती, सतना( मध्यप्रदेश)

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