इंदिरा और आनन्द का एकलौता बच्चा पढ़ लिखकर अप्राप्त नश्वर भविष्य को सुनहरा बनाने निकल गया। माता-पिता के पास दर्जनों भृत्य रख-रखाव देखभाल के लिए नर्तन करते ही रहते हैं। सुख-सुविधा तो आनन्द और इंदिरा ने ही इतना बना लिया है कि आरामदेह जीवन यात्रा संपन्न हो जाए किन्तु कसक है किसी बात की। इंदिरा अपने बच्चे के उदर को कभी भी नौकरों के हाथ से बने और परोसे भोजन से नहीं भरती थी पर बच्चे के हाथ जब खिलाने लायक हुए तो वे यह दायित्व परिचारकों पर छोड़कर चलते बने। एक दिन उनको ख़बर मिलती है उनका बेटा हिमांशु नहीं रहा। हृदयाघात ने हृदयांश को हर लिया। जीवन की आधारशिला सहस्त्र अंशों में विभाजित हो यत्र-तत्र बिखर सी गई है। पचपन वर्ष का हृदय भरसक मज़बूत है लेकिन असमर्थ पा रहा है जीवन के बिखरे भागों को सहेजने-जोड़ने में। यह विकट दामिनी गिरनी ही थी क्योंकि सुखों के उपवन का सौंदर्य कब तक पतझड़ के दुष्प्रभाव से बच सकता है। इस ख़बर के बाद जीवित शव से अधिक वे दोनों और कुछ नहीं रहे। आनंद और इंदिरा का और कोई था भी नहीं जो उन्हें संभालता। आनन्द मनोरोग से ग्रस्त हो गया। नारी महान होती है, इस बात की गरिमा रखते हुए इंदिरा ने आनन्द के चेतना में प्राण भरने चाहे। एक शोर अचानक सुनाई देता है उनके बंगले के पास। इंदिरा नौकरों से पूछताछ करती है। उसे मालूम होता है कि कोई ग़रीब पिता धन की कमी से जूझता हुआ बारातियों को मना रहा है। तुरंत नौकरों को कहती हैं चलों तैयारी करो वह हमारी बेटी की शादी है। अनमने आनन्द को साथ लेती है और विवाह के बुझते प्रकाश को हर्ष के तेज़ से भर देती है। धूमधाम से विवाह होता है। पता चलता है कि जिस बिटिया का विवाह हो रहा था वह अभी नई-नई मनोचिकित्सक बनी थी। चूँकि पिता सारा धन उसके पढ़ाई में ख़र्च कर दिया इसलिए विवाह के लिए धन का अभाव होना ही था। कृतज्ञता वश पिता पुत्रवत इंदिरा-आनन्द के पैर पर गिर पड़ता है। सुख की पूरकता एक दिशा की मोहताज बिल्कुल भी नहीं। कब, कहाँ और कैसे सुख की पूरकता इंतेज़ार कर रही हो, अवश्य ढूँढ़ना चाहिए। जिस बेटी का विवाह धूमधाम से हुआ उसने बड़े मन से आनन्द का इलाज किया। आनन्द और इंदिरा को न केवल हिमांशु जैसा बेटा मिल गया बल्कि लाड़ली पोती भी और भर गया खाली सा परिवार।
ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्यप्रदेश)