नींद कहाँ आती है - कविता - प्रमोद कुमार

अकेला मन उदास हो,
और सपनों का दास हो।
नींद कहाँ आती है!

ख़ूबसूरत जीवनसाथी हो,
पर हरदम जज़्बाती हो।
नींद कहाँ आती है!

घर में बेटी जवान हो,
जब करना कन्यादान हो।
नींद कहाँ आती है!

हाथ-पाँव लाचार हो,
घर में बेटा बेकार हो।
नींद कहाँ आती है!

छीज रहे जब रिश्ते हों,
रोते घर के फ़रिश्ते हों।
नींद कहाँ आती है!

बदलती मनु की नस्लें हों,
सूखती खेत की फ़सलें हों।
नींद कहाँ आती है!

जब क़लम भी बिकता हो,
पैसे की भाषा लिखता हो।
नींद कहाँ आती है!

शहीद होता जवान हो,
आत्महत्या करता किसान हो।
नींद कहाँ आती है!

सबका मालिक सोता हो,
आत्म-मुग्ध बस होता हो।
नींद कहाँ आती है!

जन जिन पर भरोसा करता हो,
वह पेट वादों से भरता हो।
नींद कहाँ आती है!

प्रमोद कुमार - गढ़वा (झारखण्ड)

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