गाँव - कविता - संजय राजभर 'समित'
रविवार, मई 28, 2023
शहर में रहते हुए
बीत गए पंद्रह साल
हर वक़्त तनाव
लेनदारी में
देनदारी में
पर सुकून कहाँ?
दोनों बाँह फैलाए
आया था शहर
पूरी आत्मविश्वास के साथ
दुनिया को मुट्ठी में करने के लिए
पर हुआ क्या
अब ज्ञान हुआ
पर देर हो गई है
ज़िम्मेदारियाँ जकड़ ली है!
गन्ना चूसते हुए
चने मटर की हरी-हरी दाने
आलू दम
धनिया मिर्च की चटनी
जब तक गाँव लौटूँगा
तब तक
दाँत सब गिर गए होंगे
या
वृद्धाश्रम में होंगे।
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