चिराग़ लगे - नवगीत - अविनाश ब्यौहार

दूर करने
अंधकार को
जैसे चिराग़ लगे।
सच का दामन
और झूठ के
सौ-सौ दाग़ लगे॥

शहर चतुर हैं
गाँव अभागे हैं।
फटी धोतियांँ
सिलते तागे हैं॥

कोई पहेली
हल करने
कितना दिमाग़ लगे।

दुर्घटना से
लगे बचाने हैं।
कोलाहल में
उगते थाने हैं॥

डिटर्जेन्ट को
घोला और
झाग ही झाग लगे।

दिन डूबा तो
शाम आ गई है।
उपदा दफ़्तर
बेच खा गई है॥

मधुऋतु में
मनभावन सा
टेसू का बाग़ लगे।


Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos