वक़्त का खेल - कविता - संजय राजभर 'समित'

जर्जर खण्डहरें 
यश गाथा को अपनी प्राचीर में समेटे
निःशब्द खड़े हैं,
परिवर्तन संसार का नियम है 
राजा से रंक 
रंक से राजा
सब परिस्थितियों का विकास है 
और विनाश है 
यही वक़्त का खेल है।

सतत संघर्ष 
निःसंदेह बुलंदी को छूता है 
पर सही वक़्त पर
प्रतिभाओं को
यदि अवसर नहीं मिला 
तो प्रतिभाएँ निखर नहीं पाती। 
जन्म से लेकर अवसान तक 
सब वक़्त के पाबंद 
चक्र चलता है। 

थोड़ी सी सफलता पर
बधाई देने वालों का 
हुजूम उमड़ पड़ता है,
कल तक भूखा सो जाता था जो
आज उसी के 
हज़ारों अनुयायी बन जाते हैं 
एक वक़्त अकेला था
आज क़ाफ़िला है।

ब्रह्माण्ड अपनी धुरी पर 
अनंत काल से चल रहा है 
ज़रा सा परिवर्तन 
भयंकर विनाश करता है।


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